विमलनाथ भगवान का परिचय
चिन्ह सूकर
पिता राजा कृतवर्मा
माता रानी जयश्यामा
वंश इक्ष्वाकु
वर्ण क्षत्रिय
अवगाहना 60 धनुष (240 हाथ)
देहवर्ण स्वर्ण सदृश
आयु 6,000,000 years
वृक्ष जामुन वृक्ष
पंचकल्याणक तिथियां
गर्भ ज्येष्ठ कृष्ण १०
कांपिल्य
जन्म माघ शुक्ला ४
कांपिल्य
दीक्षा माघ शुक्ला ४
कांपिल्य
केवलज्ञान माघ शुक्ला ६
कांपिल्य
मोक्ष आषाढ़ कृष्ण ८
सम्मेद शिखर
समवशरण
गणधर श्रीमंदर आदि ५५
मुनि अड़सठ हजार
गणिनी आर्यिका पद्मा
आर्यिका एक लाख तीन हजार
श्रावक दो लाख
श्राविका चार लाख
यक्ष पाताल देव
यक्षी वैरोटी देवी

परिचय

पश्चिम धातकीखंड द्वीप में मेरू पर्वत से पश्चिम की ओर सीता नदी के दक्षिण तट पर रम्यकावती नाम का एक देश है। उसके महानगर में पद्मसेन राजा राज्य करता था। किसी एक दिन राजा पद्मसेन ने प्रीतिंकर वन में स्वर्गगुप्त केवली के समीप धर्म का स्वरूप जाना और यह भी जाना कि ‘मैं तीसरे भव में तीर्थंकर होऊँगा।’ उस समय उसने ऐसा उत्सव मनाया कि मानों मैं तीर्थंकर ही हो गया हूँ। अनन्तर सोलहकारण भावनाओं द्वारा तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध कर लिया। अन्त में सहस्रार स्वर्ग में सहस्रार इन्द्र हो गया।

गर्भ और जन्म

इसी भरत क्षेत्र के कांपिल्य नगर में भगवान ऋषभदेव का वंशज कृतवर्मा नाम का राजा राज्य करता था। जयश्यामा उसकी प्रसिद्ध महादेवी थी। उसने ज्येष्ठ कृष्ण दशमी के दिन उनका नाम ‘विमलनाथ’ रखा।

तप
एक दिन भगवान ने हेमन्त ऋतु में बर्फ की शोभा को तत्क्षण में विलीन होते हुए देखा, जिससे उन्हें पूर्व जन्म का स्मरण हो गया। तत्क्षण ही भगवान विरक्त हो गये। तदनन्तर देवों द्वारा लाई गई ‘देवदत्ता’ पालकी पर बैठकर सहेतुक वन में गये और स्वयं दीक्षित हो गये, उस दिन माघ शुक्ला चतुर्थी थी।

केवलज्ञान और मोक्ष’
जब तपश्चर्या करते हुए तीन वर्ष बीत गये, तब भगवान दीक्षावन में जामुन वृक्ष के नीचे ध्यानारूढ़ होकर घातिया कर्मोंका नाशकर माघ शुक्ल षष्ठी के दिन केवली हो गये। अन्त में सम्मेदशिखर पर जाकर एक माह का योग निरोध कर आठ हजार छह सौ मुनियों के साथ आषाढ़ कृष्ण अष्टमी के दिन:सिद्धपद :को प्राप्त हो गये।