जैन तीर्थंकर श्री पद्मप्रभ स्वामी - जीवन परिचय | Jain Tirthankar Shri Padmaprabh Swami - Life Introduction |

परिचय
धातकीखंड द्वीप के पूर्व विदेहक्षेत्र में सीता नदी के दक्षिण तट पर वत्सदेश है। उसके सुसीमा नगर के अधिपति अपराजित थे। किसी दिन भोगों से विरक्त होकर पिहितास्रव जिनेन्द्र के पास दीक्षा धारण कर ली, ग्यारह अंगों का अध्ययन कर तीर्थंकर प्रकृति का बंध किया। अन्त में ऊर्ध्व ग्रैवेयक के प्रीतिंकर विमान में अहमिन्द्र पद प्राप्त किया।

गर्भ और जन्म
इसी जम्बूद्वीप की कौशाम्बी नगरी में धरण महाराज की सुसीमा रानी ने माघ कृष्ण षष्ठी के दिन उक्त अहमिन्द्र को गर्भ में धारण किया। कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी के दिन पुत्ररत्न को उत्पन्न किया। इन्द्रों ने जन्मोत्सव के बाद उनका नाम ‘पद्मप्रभ’ रखा।

तप
किसी समय दरवाजे पर बंधे हुए हाथी की दशा सुनने से उन्हें अपने पूर्व भवों का ज्ञान हो गया जिससे भगवान को वैराग्य हो गया। वे देवों द्वारा लाई गई ‘निवृत्ति’ नाम की पालकी पर बैठ मनोहर नाम के वन में गये और कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी के दिन दीक्षा ले ली।

केवलज्ञान और मोक्ष
छह मास छद्मस्थ अवस्था के व्यतीत हो जाने पर चैत्र शुक्ला पूर्णिमा के दिन मध्यान्ह में केवलज्ञान प्रकट हो गया। बहुत काल तक भव्यों को धर्मोपदेश देकर फाल्गुन कृष्ण चतुर्थी के दिन सम्मेदाचल से मोक्ष को प्राप्त कर लिया।