सारांश

(सभी धर्म एवं संस्कृति, सभ्यता एवं सम्प्रदाय सैद्धान्तिक विभिन्नता होते हुए भी कुछ मान्यताओं, अवधारणाओं एवं क्रियाओं पर एकमत है। स्पष्ट है कि इनमें कुछ अन्तर्निहित विशिष्टता हैं। ‘‘चरण स्पर्श’’ भी एक ऐसी परम्परा और भावना है जो पश्चिमी रंग ऐतिहासिक एवं राजनैतिक परिवर्तन एवं भौतिकता के युग में भी सर्वत्र मान्य है। वर्तमान के व्यक्ति स्वतन्त्रता प्रधानता के युग में यह जानना आवश्यक हो जाता है कि इस परम्परा का वर्तमान वैज्ञानिक युग में भी कोई औचित्य है अथवा यह मात्र जड़ता रूढिवादिता या धर्मान्धता की द्योतक है। वैज्ञानिक आलोक में भी हमें ‘‘चरण स्पर्श’’ की गरिमा और महिमा स्पष्टतया परिलक्षित हो रही है।)
भारत वर्ष सदा से आध्यात्म तत्वज्ञान का महासागर रहा है, इसी महासागर में से अनन्तान्त जीवों ने सम्यदर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र रूप रत्नत्रय को प्राप्तकर अनिवश्वर नि:श्रेयस अनन्त सुख को प्राप्त किया है, ‘‘चरित्तं खलु धम्मों’’ यहां ध्येय वाक्य रहा है, इस चरित्र धर्म की ओर प्रगतिशील होने के अनेक प्रकारों में—स्तवन् , पूजा, श्रद्धा, विनय एवं श्रेष्ठता की प्राप्ति में ‘‘चरण स्पर्श’’ को मुख्य कहा गया है, सोऽहं भाव युक्त श्रमण संस्कृति में भी चरणों की वन्दना को नकारा नहीं गया है—अपितु कहा गया है— ‘‘हे नाथ आपके पद—पंकज भवसागर पार लगाते हैं’’ ‘‘दोनों कमल पद आपके अज्ञान तक हरते तथा’’ पूर्वाचार्य प्रणीत शास्त्रों में भी हम देखें तो चरण—महिमा की सुरभि सर्वत्र दिखाई पड़ती हैं। चरणों की इस गरिमा और महिमा के पृष्ठ में क्या तथ्य और कथ्य अन्तर्निहित हैं। यदि हम गहराई एवं गंभीरता से देखे तो पाते हैं कि ‘‘चरण स्पर्श’’ की भावना का एक विस्तृत मनोविज्ञान भी है और विज्ञान है। आगम में चरणों का स्पर्श उन्हीं महान, श्रेष्ठ धर्मात्मा, पूज्य गुरूजनों का कहा गया है जो चारित्रिक दृष्टि से सम्पन्न है, रागादि विकारों से रहित है, सांसारिकता से परे है एवं शुद्ध मोक्षमार्ग की ओर अग्रसर है, ऐसे चरित्र नायक, महामानवों के चरण संस्पर्शन का सीधा—सा अर्थ है, हम इनके चरित्र को अपना आदर्श मानते हैं और श्रद्धा से अभिभूत हो नमित है, हमारी विनम्रता और विनयशीलता को प्रकट करने वाली यह भावना अप्रत्यक्षत: यह भी दिग्दर्शित करती है कि हम भी मानव जीवन के लक्ष्य का ज्ञान रखते हैं और भावना अप्रत्यक्षत: यह भी दिग्र्दिशत करती है कि हम भी मानव जीवन के लक्ष्य का ज्ञान रखते हैं और हमें पूर्णाभास है कि इस लक्ष्य की प्राप्ति का कपथ इस चरित्र रथ पर आरूढ़ हो निश्चित किया जा सकता है। शारीरिक संरचना के आधार से हम विवीक्षित करते हैं तो स्पष्ट परिलक्षित है कि सम्पूर्ण ऊर्जा चरण व शीश के मध्य सिमटी है।

चरणों को आदि अथवा अन्त माना जा सकता है। दैहिक भूगोल का, चरण सीमा हैं, हमारे तन की शीश के ऊपर अनन्त खुला आकाश है, किन्तु चरण के लिए है पद्मावत धरा अर्थात् हमारे चरणों पर ही हमारा सम्पूर्ण शरीर टिका है। ये दो छोटे से कदम स्थूल से स्थूलतम शरीर का भार वहन करने में समर्थ है, चरणों के अभाव में शरीर अस्थिर हो जाता है। चरण आधार है हमारे तन के। अपर दृष्टिकोण से विचार तो चरण यथार्थ के प्रतीक है धरा से जुड़कर चलते हैं अर्थात् सत्य के पर्याय है। कल्पना लोक में विचरण नहीं करते, मस्तिष्क कल्पना की कुंलाचे भर सकता है, किन्तु चरण तो, आचरण है, चरित्र के प्रतिबिम्ब है, हमारी गति के प्रत्यक्षदर्शी है चरणों की चाल देखते ही मानव के गुणों का आकंलन भी तो मनोवैज्ञानिक कर लेते हैं, सुव्यवस्थित नपे—तुले पांव देखते ही पता चलता है व्यक्ति तटस्थ, विवेकी, गुणी एवं सहृदय ै, जबकि इधर—उधर रखें तिरछे—आड़े पांव तत्काल इसके विपरीत चारित्रिक उद्घोषणा करते हैं, इसीलिए तो कहा गया है कि

‘‘महाजना: येन गता: स: पन्था’’

आगम में भी वर्णित है—

‘‘सच्वं वि हि सदुणाणं सुट्ठु सुगुणिदं विसुट्ठु पढिदंपि समणं भट्ठचरित्त पहु सम्मों सुग्गहि णेदु’’
सम्पूर्ण श्रुतज्ञान को प्राजंल रूप से अध्ययन करने पर भी, मनन करने पर भी जो श्रमण चरित्र से भ्रष्ट है, वह सुगति को प्राप्त नहीं कर सकते
णाणं णरस्स सारो, सारो वि णरस्स होइ सम्मत्तं सम्मतादो चरणं चरणादो होई णिव्वाणं।।
ज्ञान मनुष्य का सारभूत तत्व है, परन्तु वह ज्ञान तब सारभूत होता है जब ज्ञान सम्यक् आचरण व चारित्र वृत्ति होती है। चारित्र ही सर्वोेत्कृष्ट और प्रभावी होता है। लौकिकता में हम चारित्रवान के प्रति हृदय से व सम्पूर्ण आस्था से नम्रीभूत है। ज्ञानी के सम्पर्क में आने पर ज्ञानी ही प्रभावित होता है, किन्तु चरित्र धन सम्पन्न व्यक्ति समस्त जनमानस को स्वत: ही आकृष्ट कर लेता है। इस प्रकार हमारी शक्तियों का चरणों के प्रति झुकाव का मनोवैज्ञानिक ठोस आधार है। विज्ञान की दृष्टि से भी हम विश्लेषित करें तो स्पष्ट हैं कि हमारा शरीर ऊर्जा का भंडार है, ऊष्मा का सुचालक है, हमारी देहयष्टि से ऊष्मा का निष्कासन हाथों व पावों की अंगुलियों के सिरे से होता है अत: हाथों से आर्शीवाद का विधान शीश संस्पर्शन से है। ऊर्जा केन्द्रित कर नमित व्यक्ति को उर्जस्वित करने से है। दूर से भी हाथों को उठाकर आशीर्वाद का चुम्बकीय प्रभाव है, सर्चलाइट फोकस कर आन्तरिक तम विच्छिन्न करने से है, इसी प्रकार चरणों से निकली ऊर्जा का स्पर्श करन्ट की भांति मानव को उद्वेलित और उस ऊर्जा को मस्तिष्क से इसीलिए स्पर्श कराते हैं जिससे हमें यत्नाचार एवं सावधानीपूर्वक आचरण का ज्ञान भली—भांति मिलता रहे। हम जैसे ही ऊर्जा के सम्पर्क में आते हैं’’ इलैक्ट्रिक शॉक’’ की उपचार पद्वति की तरह हमारी विवेक बुद्धि और ज्ञानेन्द्रियां उद्वेलित होकर कार्यरत एवं क्रियाशील हो जाती है। और हमें कर्तव्य बोध होता है जिससे हम भ्रष्ट उन्मत्तता से बच जाते हैं। श्रावकाचार विधान में जिनबिम्बों की भाँति ही चरणों की स्थापना को भी महत्व दिया गया है। विशिष्टता है कि सभी चरण छत्री व टोंक चरित्र सम्राटों के हैं। चारित्रिक दृष्टि से निम्न ज्ञानियों के नहीं। ज्ञातव्य है, जैनागम में चारित्रिक उत्कृष्टता की श्रेणी का निर्धारण व्रत—महाव्रत अंगीकार से होता है। चरणों की पूजा महाव्रतधारी महामानवों की ही गई हैं, कारण वही कि इस दुर्लभ मनुष्य पथ पर्याय की सार्थकता है ही तब, जब हम चारित्रिक धरोहर से सम्पन्न बनें। अस्तु ज्ञान, मनोविज्ञान विज्ञान सभी दृष्टिकोण से चरण पूजन की महत्ता अनिर्वचनीय है, इससे मन प्रसन्नभाव को प्राप्त होता है जिससे मानसिक शान्ति मिलती है, पाप नष्ट होता है, पुण्य की प्राप्ति होती है अन्तरंग ग्रन्थियों से विमुक्त, सच्चे धर्म का साक्षात जीवन्त स्वरूप, यर्थाथ प्रतिपादन, एवं पापात्मक कार्यो से अरूचि होती है। चरणों की महिमा को सम्पूर्ण विश्व के तत्व मनाीषियों ने इसीलिए एकमत से स्वीकारा हैं। चरणों की ऊर्जा प्राप्ति से ही अन्तरंग में शुक्लध्यान प्रज्वलित हो उठता है आत्मविशुद्धि एवं अनन्त (ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य) प्रकट होता हैं। कहा भी हैं—
भिन्नात्मानमुपास्यात्मा परा भवति तादृश: वत्तिर्दींप यथोपास्य भिन्ना भवति तादृशी।।
अपनी आत्मा से भिन्न अर्हन्त, सिद्ध परमात्मा की उपासना, आराधना करके आत्मा उनके समान परमात्मा बन जाती है, जैसे— दीपक से भिन्न वर्तिका (बाती) दीपक की उपासना करे यानि—साथ रहकर दीपक के समान प्रकाश मान हो जाती है। चरण—आराधना में निहित विज्ञान व मनोविज्ञान की एक दर्शनीय झलक यह भी—
अद्य भवत्सफलता नयन द्वयस्य, देव: त्वदीय चरणाम्बुंज वीक्षणेन।
अद्य त्रिलोक तिलक। प्रतिभासिते में संसार वारिधिरियं चुलक प्रमाणं।।

(हे जिनदेव! आपके चरण—कमल को देखने से आज मेरे दोनों नेत्र सफल हो गए हैं, हे तीन लोक के चूड़ामणि। मुझे आज यह संसार बहुत थोड़ा प्रतीत होता हैं।) आइए। आचार्य प्रवर उमास्वामीजी के सूत्र बन्दे सद्गुण लब्धये की प्राप्ति हेतु श्री—चरणों की वन्दना कर अपनी आध्यात्मिक विभूतियों के आध्यामिक गुण प्राप्त करें।।

संदर्भ—

१. पार्श्वनाथ पूजा (पुष्पेन्दुकृत) जिनवाणी संग्रह
२. सामायिक, हिन्दी अनुवाद, वही
३. मूलाचार, आचार्य कुन्द कुन्द
४. अष्ट पाहुड, आचार्य कुन्द कुन्द
५. समाधितन्त्र, पूज्यपाद स्वामी
६. दर्शन स्तोत्र, जिनवाणी संग्रह