कर्मनिर्जरा कथा एवं व्रत विधि
!! Karmanirjara katha evam vrat vidhi !!
कर्मनिर्जरा व्रत विधि एवं कथा
व्रतविधि—
आश्विन सुदी ५ के दिन इन व्रतिकों को प्रासुक जल से अभ्यंगस्नान करके नया धौतवस्त्र पहनना चाहिए। सब पूजा-सामग्री हाथ में लेकर चैत्यालय में जाकर मंदिर की तीन प्रदक्षिणा करके ईर्यापथशुद्धि आदि क्रिया करके श्री जिनेन्द्र को भक्ति से साष्टांग नमस्कार करना चाहिए। पुन: भूमि शुद्धि करके उस पर पंचवर्ण का अष्टदल यंत्र बनाकर चारों तरफ चतुरस्र पंचमंडल बनाकर उसके पास अष्ट मंगल कुंभ आदि आठ प्रातिहार्य रखें। बीच में सुशोभित कुंभ रखें और एक थाली में पाँच नागरबेली के पान, फल, आदि रखकर वह थाली कुंभ पर रखें। श्रीवेदी पर पंचपरमेष्ठी की प्रतिमा यक्ष-यक्षी सहित स्थापित करके उनका पंचामृत से मंत्रपूर्वक अभिषेक करें। मूर्ति के सामने एक पाटे पर पाँच स्वस्तिक बनाकर उसमें पाँच पान,गंधाक्षत, फल, पुष्प आदि द्रव्य रखकर फिर पंचपरमेष्ठी की प्रतिमा इस मध्य कुंभ की थाली में स्थापित करें और अष्टद्रव्य से उनकी पूजन करें। पुन: यक्ष, यक्षी की अर्चना करें। पंच पकवानों के पाँच नैवेद्य बनाकर चढ़ावें और निम्न मन्त्रों की जाप करें –
१.ॐ ह्रीं अर्हं अनंतचतुष्टकात्मकेभ्यो नवकेवललब्धिसमन्वितेभ्यो अर्हत्परमेष्ठिभ्यो नम: स्वाहा।।१।।
२.ॐ ह्रीं अर्हं अष्टकर्मविनिर्मुक्तेभ्यो अष्टगुणसंयुक्तेभ्यो सिद्धपरमेष्ठिभ्यो नम: स्वाहा।।२।।
३.ॐ ह्रीं अर्हं पंचेंद्रियविषयरहितेभ्य: पंचाचारनिरतेभ्य: सूरिपरमेष्ठिभ्यो नम: स्वाहा।।३।।
४.ॐ ह्रीं अर्हं व्रतसमितिगुप्तिसहितेभ्य: कषायदुरितरहितेभ्य: पाठकपरमेष्ठिभ्यो नम: स्वाहा।।४।।
५.ॐ ह्रीं अर्हं मूलोत्तरगुणाढ्येभ्य: सर्वसाधुपरमेष्ठिभ्यो नम: स्वाहा।।५।।
इस पंच मंत्र में से प्रत्येक मंत्र से अलग अलग अर्घ्य चढ़ाकर १०८-१०८ बार सुगंधितपुष्प से इन मंत्रों से जप करना चाहिए। इस क्रम से पंचपरमेष्ठी की पूजन करें। बाद में एक पात्र में पाँच पान और उस पर अष्टद्रव्य और एक नारियल रखकर ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूँ ह्रौं ह्र: असिआउसा पंचपरमेष्ठिभ्यो नम: स्वाहा।। इस मंत्र से पूर्णार्घ्य करें। श्री जिनसहस्रनाम स्त्रोत पढ़कर व्रत की कथा पढ़ें। साथ ही णमोकार मंत्र का १०८ बार जाप भी करें। उस दिन उपवास करें। यदि शक्ति नहीं है तो अल्पाहार या एकाशन करें। यह दिन धर्मध्यान में लगावें। ब्रह्मचर्य का पालन करें।मुनि, आर्यिका आदि चतुर्विध संघ को आहारादि दान देकर पारणा करें। इस प्रकार यह व्रत पाँच वर्ष करके फिर उसका उद्यापन करें। उसी समय श्री पंचपरमेष्ठी की नयी प्रतिमा बनाकर पंचकल्याणक विधिपूर्वक इसकी प्रतिष्ठा करें। नये नौ पात्र में और नौ कटोरी में दूध की खीर, अंबील करंज्या (गुझिया), लड्डू आदि पकवान रखकर मूर्ति के सामने रखते समय यह मंत्र बोले-ॐ ह्रीं अर्हं नमोऽर्हते पंचकल्याणकसंपूर्णाय नवकेवललब्धिसमन्विताय स्वाहा।। इस मंत्र से वायने मूर्ति के पास रखें और ॐ नमोऽर्हते भगवते सर्वकर्मनिर्जरां कुरू कुरू स्वाहा।। इस मंत्र से चढ़ावें। चतु:संघ को आहारादि दान देवें। ऐसी इस व्रत की पूर्ण विधि है।
व्रत की कथा-
उज्जयिनी नगर के समीप एक छोटा सा गाँव था। वहाँ पहले बलभद्र नाम के सेठ रहते थे। उनके सात लड़के थे। सातों के सात भार्या थीं। वह उनके साथ आनंद से रहते थे। किसी दिन एक महातपस्वी उस गाँव के परकोटे के सन्निध कायोत्सर्ग से ध्यान में बैठे थे। उस सेठ की यशोमति नाम की एक छोटी बहू थी। उस बहू ने उषाकाल में जानवरों का गोबर इकट्ठा करके परकोटे के बाहर फेंक दिया। वह गोबर उन मुनीश्वर के ऊपर पड़ा। सुबह हो गयी। लोग इधर-उधर जा रहे थे। बलभद्र सेठ बहिर्दिशा (शौच) को गये थे। जब उन्होंने देखा कि मुनीश्वर के ऊपर गोबर है तब उन्होंने घर से उष्ण जल मंगवाया और उनका सब बदन अच्छी तरह से साफ किया। मुनि ने ध्यान का विसर्जन किया फिर सेठ ने उनको भक्तिपूर्वक वंदन किया और विनय से बोला‘‘हे मुनिराज! मेरी छोटी बहू ने अज्ञान से बिना जाने आपके बदन पर गोबर फेंक दिया इसलिये हमें क्षमा करो।’’ तब मुनि बोले-‘हे भद्रपुरूष! इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं है, मेरा ही पूर्व भव का कर्मोदय है। यह कहकर मुनि ने उनको ‘सद्धर्मवृद्धिरस्तु’ ऐसा आशीर्वाद दिया और वहाँ से वन में विहार कर गये।
इधर वह यशोमति स्त्री, उन मुनीश्वर के ऊपर गोबर अज्ञान से डालने के पाप के कारण दुर्धर रोग से ग्रस्त होकर मर गयी। फिर वह उज्जयिनी में वैश्यसुत के घर में जन्मी। जन्मते ही माँ-बाप मर गये तो एक गृहस्थ ने उसका पालन पोषण किया। पाँच बरस की होते ही वो भी मर गया। पुन: श्रीमती नामक एक आर्यिका उस लड़की का पालन-पोषण करने लगी। लोग उस लड़की को ‘कर्मी’ नाम से पुकारते थे। एक दिन उस गाँव के जिनमंदिर में श्रुतसागर नाम के चारणऋद्धिधारी मुनीश्वर आये थे। उनके दर्शन के लिए नगर के श्रावक-श्राविकाजन गये थे। उस समय वह कर्मी भी गयी थी। सब लोग उन मुनि की तीन प्रदक्षिणा देकर भक्ती से दर्शनादि करके उनके समीप जाकर बैठ गए, उस समय मुनिराज ने मधुर वचनों से धर्मोपदेश दिया। उपदेश सुनकर वह कर्मी कुमारी बहुत दु:खाकुल होकर अपने नेत्रों से अश्रु गिराने लगी और उन मुनीश्वर के चरणों में पड़ गई, तब मुनीश्वर ने अपने अवधिज्ञान से उस लड़की का पूर्वभव जान लिया और अत्यंत करूणायुक्त अंत:करण से बोले—हे कन्यके! तूने पहले भव में एक तपस्वी के ऊपर अज्ञान से गोबर फेंक दिया था। उस पातक के कारण अब तुझे दु:खदाई ये दरिद्रावस्था प्राप्त हुई है और उस दुर्दैव के कारण तुम्हारे माता-पिता और वो पालनकर्ता भी मर गये हैं। अब तू उस कर्म की निर्जरा करने के लिए कर्मनिर्जराव्रत यथोचित पालन करके उसका उद्यापन कर, तब तुझे इस योग से आगे ऐहिक और पारमार्थिक सुख मिलेगा। ऐसा कहकर उन्होंने उस व्रत की विधि बतायी। तब उस कर्मी कुमारी ने वह व्रत उनके पास ग्रहण किया।
तदनंतर उस कर्मी कुमारी ने वहाँ के श्रावक-श्राविकाओें की सहायता से काल के अनुसार यह व्रत करना आरंभ किया। कुछ दिन के बाद उस उज्जयिनी नगर का एक श्रियंकर राजपुत्र सर्पदंश से अकस्मात् मर गया। उस समय उसका विवाह नहीं हुआ था। इसलिए माता को बहुत दु:ख हो गया। वह अपने पति को बोली—‘‘हे प्राणनाथ! अपने लड़के का विवाह-संस्कार किए बिना दहन क्रिया मत करो’’। रानी के यह वचन सुनकर राजा ने प्रधान को कहा, हे प्रधानगणों! हमारे लड़के का विवाह संस्कार करने के बाद दहन क्रिया करनी है। अत: कन्या मिलाने के लिए आप कहीं से भी शीघ्र उपाय करिये। तब मरे हुये पुत्र को कन्या कौन देगा, इस विचार से सब चिंताग्रस्त हो गये। फिर मंत्रीजनों ने एक युक्ति की। बहुत सुवर्णादि धन एक गाड़ी में भरकर नगर में एक ढिंढ़ोरा पिटवाया कि हमारे मृत राजपुत्र को जो कन्या देगा उसे ये सब धन दिया जायेगा। जिसकी इच्छा है वह संतोष से अपनी कन्या देकर ये सब धन ले ले। ऐसा घोष उच्चस्वर से करते-करते उस धनपूर्ण गाड़ी के साथ वे राजसेवक जिनमंदिर के पास गये। तब वह कर्मी कुमारी उन श्रीमती नामक माताजी से कहती है-
‘हे आर्याम्बिके! अगर मैं मेरा शरीर उस मृतक राजपुत्र को देकर वो सब धन ले लूँ तो उस धन से जिनमंदिर पूजादिक करके पुण्यलाभ होगा क्या? उस कन्या की चतुरता और धूर्तता का भाषण सुनकर वह आर्यिका बोली ‘‘हे कुमारि! अगर तुम्हारे दिल में धैर्य और उत्साह हो तो वह द्रव्य लेने की कोई भी मनाही नहीं है। आर्यिका के वाक्य सुनते ही वह दौड़कर उन राजसेवकों की ओर गयी और बोली-हे राजसेवक! मैं इस मृतक राजपुत्र के साथ शादी करने के लिए तैयार हूँ, अत: यह सब द्रव्य मंदिर जी के निकट धरो। तब मैं तुम्हारे साथ तत्काल इस गाड़ी में चलूँगी।
‘‘ठीक है चलो! ऐसा कहते ही उस राजसेवक ने सब धन गाड़ी से निकालकर उस मंदिर के निकट रख दिया और उस कन्या को गाड़ी में बिठाकर राजवाडे की तरफ बड़े ही ठाट से ले गये। तब राजा, रानी, मंत्री आदि सब लोगों को महदाश्चर्य हुआ। उन्होंने उस ही क्षण एक सुंदर मंडप बनवाया और समारंभ से उस राजपुत्र का उस कर्मी लड़की के साथ विवाह किया। तदनंतर उस मृतक राजपुत्र की शवयात्रा निकली, वह श्मशान के पास पहुँची भी नहीं कि मेघकुमार ने अकस्मात् भयंकर मेघवर्षा शुरु कर दी। उस समय पास में एक बड़ा बरसाती नाला था। वह अचानक भर गया और जोर से बहने लगा। ऐसी भीषण परिस्थिति में सब लोगों ने विचार करके वह शव सुरक्षित स्थान पर रखा और उसके रक्षणार्थ किंकरों को नियुक्त कर दिया और वे सभी लोग राजवाड़े की ओर चले गये। मात्र वो कर्मी अपने पति की सेवा करने के लिए वहाँ ही रही। वह दिन कर्मनिर्जरा व्रत का है ऐसा उसके ध्यान में आया। तब कर्मी ने उस जलप्रवाह के समीप जाकर और अंतरंग शुद्धि करके पंचपरमेष्ठी के मंत्र से सिर्फ पानी और बालू लेकर भाव पूजा बड़ी भक्ति से करना शुरू किया। उस लड़की की दृढ़ भक्ति देखकर पद्मावती माता का आसन कम्पायमान हुआ। पद्मावती माता ने अवधिज्ञान से उस भाविक कन्या की सब परिस्थिति जान ली और तत्काल वहाँ आयीं। उन्होंने अपना दिव्य रूप प्रगट किया और बोलीं—
हे दीनबालिके! पूजाद्रव्य न होने पर भी तूने ये मिथ्या पूजा को क्यों आरंभ किया ? बालू और पानी से पूजा करने से किसी भी फल की प्राप्ति नहीं होगी। भाषण सुनकर वह लड़की बोली-हे भगवति! आप कौन हो? कहाँ से और क्यों आई हो ? ऐसा सुनते ही वह पद्मावती माता बोलीं-हे कन्या! तुम मुझे देखकर मत डरो। मैं पद्मावती देवी हूँ। तुम्हारी पंचपरमेष्ठी पर जो दृढ़ भक्ति है वह देखकर मैं आयी हूँ। अब मैं तुम पर प्रसन्न हूँ । तुम्हें जो वर चाहिए, माँगो। तब वह कर्मी बोली-हे महादेवी! मैने राजा की प्रकट आज्ञा को सुनकर द्रव्य के लोभ से उनके मृत पुत्र के साथ शादी की है। वह राजपुत्र आज सबेरे ही सर्पदंश से मरा है। उनका दाहकर्म करने के लिए यहाँ श्मशान में लाया गया है और आज मेरे व्रतविधान का भी दिन है। इसलिए मैं द्रव्यभाव से भाव पूजा कर रही हूँ। फिर वह पद्मावती माता उस कन्या के साथ उस मृतक राजपुत्र के पास गयीं और उसको निर्विष करके अपने स्थान पर चली गयीं।
ध्यान रहे कि सर्पदंश से वह राजपुत्र मृतकवत् हो गया था इसलिए देवी ने उसे विष रहित करके जीवित कर दिया। यदि प्राण निकल गये होते तो कर्मसिद्धांत के अनुसार प्राण वापस नहीं आ सकते थे। उस वक्त वह राजपुत्र गाढ़ निद्रा से जागृत होने के समान दिखा और उठ बैठा। वह भयचकित होकर बोला-‘‘यह क्या है? मुझे यहाँ कौन लाया? और क्यों लाया? ऐसी प्रतिध्वनि उसके मुख से निकलने लगी। यह सुनकर उस कर्मी युवराज्ञी ने अपना सब वृत्तान्त उसको बता दिया। यह सब चमत्कार देखकर वहाँ के सब रक्षक लोग राजा की ओर दौड़ते-दौड़ते गये और सब देखी हुई बातें राजा को बतायीं।
ये सब बातें सुनकर उन सब लोगों को महान आश्चर्य हुआ। तत्क्षण वृषभसेन राजा, गुणसेना रानी, मंत्री इत्यादि बहुत लोग उस राजपुत्र के पास गये। तब अपने पुत्र को देखते ही उनको परमानंद हो गया। सब लोग भी हर्षित हो गये। राजा ने अपनी कर्मी बहू से सब वृत्तान्त पूछा, तब कर्मी ने सब बता दिया। उसे सुनकर उस ‘कर्मनिर्जरा’ व्रत के बारे में और जैन धर्म के बारे में सब लोगों के अंत:करण में बहुत दृढ़ श्रद्धा उत्पन्न हुई। सब लोग कहने लगे कि ‘‘यह स्त्री महातपस्वी है’’ इत्यादि शब्दों से उस कर्मी की स्तुति करने लगे। पुन: सभी उन श्रियंकर राजपुत्र को और उस कर्मी युवराज्ञी को हाथी पर बिठाकर सब लोगों के साथ बड़े उत्साह से राजमंदिर की ओर लेकर गये। पश्चात् वृषभसेन राजा परिवार के साथ सुख से कालयापन करने लगा। उस कर्मी कन्या ने जो धन-सम्पत्ति मंदिर के निकट रखवाई थी उससे मंदिर निर्माण आदि अनेक उत्तम कार्य सम्पन्न करा दिये।
कालान्तर में सब लोग क्रम-क्रम से जिनदीक्षा लेकर अंत में समाधिपूर्वक मरकर अच्युत स्वर्ग में देव हो गये और वहाँ वे चिरकाल तक बहुत सुख भोगने लगे।