स्वस्तिक प्राचीन काल से जैन संस्कृति में मंगल प्रतीक माना जाता रहा है इसलिए किसी भी शुभ कार्य को करने से पहले स्वस्तिक चिह्न अंकित किया जाता है। शिलांकित प्राचीन स्वस्तिक दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व सम्राट् खारवेल के अभिलेख में और मथुरा के शिल्प में उपलब्ध हुए हैं। इतिहास की दृष्टि से मथुरा के पुरातत्त्व संग्रहालय में स्थित तीर्थंकर पार्श्वनाथ की मूर्ति पर बने हुए सात फणों में से एक पर स्वस्तिक अंकित है। स्वस्तिक का चिह्न मोहनजोदड़ों के उत्खनन से प्राप्त अनेक मुहरों में देखा गया है। स्वस्तिक की चार भुजाएँ चार गति की प्रतीक हैं। ऊपर की तीन बिन्दु—सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र को दर्शाती है। ऊपर स्थित अर्धचंद्र सिद्धशिला को लक्षित करता है। अर्धचंद्र के ऊपर जो बिन्दु है, वह उत्तम सुख का प्रतीक है। स्वस्तिक सौभाग्य का प्रतीक है—‘‘भारतीय संस्कृति में मांगलिक कार्यों में प्रत्येक कार्य की शुरुआत में यह चिह्न बनाया जाता है तथा इसे कल्याण का प्रतीक माना जाता है।’’ अनंतशक्ति, सौंदर्य, चेतना, सुख, समृद्धि, परम सुख का प्रतीक है। स्वस्तिक के चिह्न की बनावट ऐसी होती है कि वह दसों दिशाओं से सकारात्मक एनर्जी को अपनी तरफ खींचता है।