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भारत वर्ष की पावन भूमि सदैव नर रत्नों की जन्म दात्री रही है,जहाँ पर तीर्थंकरों ,यतिवरो तथा महापुरुषों ने जन्म लेकर पुरुषार्थ द्वारा ,त्याग ,तपस्या के माध्यम से अपना आत्म कल्याण किया।इस श्रंखला में आचार्य श्री विराग सागर जी ने जन्म लेकर इस वसुंधरा को गोरवान्वित किया।मध्य क्षेत्र के पथरिया दमोह जिला ,म.प्र. नगर में जब सूर्य उच्च शशि पथ पर भ्रमण कर रहा था तब २ मई १९६३ के दिन श्रावक श्रेष्ठ श्री कपूर चंद जी तथा माँ श्यामा देवी के घर यह युग की महान विभूति का अवतरण हुआ,जिसका नाम रखा गया ‘अरविन्द’।बाल अरविन्द जी ने कक्षा पांचवी तक की मौलिक शिक्षा ग्राम पथरिया में ही प्राप्त की और आगे की पढाई करने हेतु सन१९७४ में ग्यारह वर्ष की आयु में अपने माता पिता से दूर कटनी आये। वहां पर श्री शांति निकेतन दिग. जैन संस्था में ६ वर्ष तक धार्मिक तथा लोकिक शिक्षा ग्रहण की।लोकिक शिक्षा ग्यारहवीं तक पूर्ण की।साथ में शास्त्री की परीक्षा भी उत्तीर्ण की।इस छह वर्ष की कालावधी में अनेक साधू -संतों का समागम प्राप्त हुआ,जो भावी जीवन की नीव डालने में साधनभूत हुआ।

संक्षिप्त जानकारी

पूर्व नाम:
श्री अरविन्द जैन

पिता:
श्री कपूरचंद जी जैन (समाधिस्थ मुनि विश्ववंध सागर जी महाराज)

माता:
श्रीमती श्यामादेवी जैन (समाधिस्थ आ.विशांत श्री माताजी)

जन्म:
2.5.1963, गुरुवार ( वैशाख सुदी 9 वि.सं 2020)

जन्म स्थान:
पथरिया (म.प्र.)

बहन:
श्रीमती मीना जैन, श्रीमती विमला जैन

भाई:
श्री विजय कुमार, श्री सुरेंद्र कुमार, बा.ब्र श्री नरेंद्र भैयाजी

लौकिक शिक्षा:
इण्टर, मध्यमा (पथरिया, श्री शांतिनिकेतन, दि.जैन संस्कृत विद्यालय, कटनी)

विवाह:
बाल ब्रह्मचारी

क्षुल्लक दीक्षा:
20.2.1980, (फाल्गुन शु. 5 वि. सं. 2036)

क्षुल्लक दीक्षा स्थान: बुढ़ार, शहडोल
नाम:
पूज्य क्षुल्लक श्री 105 पूर्णसागर जी

क्षुल्लक दीक्षागुरु:
प.पू.तपस्वी सम्राट आचार्य श्री 108 सन्मति सागर जी

मुनि दीक्षा:
9.12.1983,(मंगसर शु. 5 वि.सं.2040)

मुनि दीक्षा स्थान:
औरंगाबाद

नाम:
प. पु. मुनि श्री 108 विरागसागर जी

मुनि दीक्षा गुरु:
प. पु. आ.श्री 108 विमल सागर जी

आचार्य पद:
8.11.1992,द्रोणगिरि (कार्तिक शु.13 वि.सं.2049)

आचार्य पद स्थान:
द्रोणगिरि

संयमी सर्जन:
आचार्य-9 , मुनि – 85 , गणिनी – 4 ,आर्यिका- 69 , ऐलक-5 , क्षुल्लक -23 , क्षुल्लिका -32

समाधि संलेखना:
लगभग 110 एवं अनेक तिर्यंच प्राणी

साहित्य सृजन: 1.वाऱसाणुपेक्या पर 1100 पृष्ठीय सर्वोदयी संस्कृत टीका
2 रयणसार पर 800 पृष्ठीय रत्नत्रयवर्धिनी संस्कृत टीका
3. लिंग पाहुड पर श्रमण प्रबोधनी टीका
4. शील पाहुड पर श्रमण सम्बोधनी टीका
5. शास्त्र सार समुच्चय पर चूर्णी सूत्र
6 अनेक शोधात्मक (शुद्धोपयोग, सम्यक्दर्शन, आगमचक्खूसाहू आदि), चिन्तनीय बालकोपयोगी कथा अनुवाद गद्य संपादित साहित्य, जीवनी एवं प्रवचन साहित्य 150 से अधिक पुस्तके
जाप्य:
लगभग 3 करोड 75 लाख से अधिक

व्रत:
कर्मदहन, भक्तामर , णमोकार मंत्र, चरित्रशुद्धि, चौसठऋद्धि, दर्शन विशुद्धि, षट्ररसी व्रत, नीतिसार, वचनगुप्ति , अष्टमी चतुर्दशी नीरस , समवशरण व्रत आदि 26 व्रत उपवास व नीरस

तप-त्याग: दही, तेल, बैर, करोंदा, टिंडा, जामुन, सभी हरी पत्ती,मटर छोड़ सभी फली, पपीता, कटहल,लवेडे, कद्दू,तरबूज, भिंडी,खुरबानी, सीताफल, रामफल, फालसा, अंगीठा, आलूबुखारा, चैरी, शक्करपारा, कुंदरू, स्ट्रॉबेरी आदि का आजीवन त्याग
विशेष त्याग:
कूलर, पंखा, लेपटाप, मोबाइल, हीटर,नेल कटर सन् 1985 से, थूखने का त्याग 1983 से

शिविर:
सम्यग्ज्ञान शिक्षिण शिविर, पूजन प्रशिक्षण शिविर, श्रावक संस्कार शिविर, प्रतिभा संस्कार शिविर

अभियान:
व्यसनमुक्ति अहिंसा शाकाहार एवं रैली (प्रतिवर्ष), जिसमे अनेक प्रांतों के कई लाख छात्र- छात्राये व्यसन मुक्त हो चुके है

अरविन्द जी को मुनिसेवा तथा जिनेन्द्र भक्ति में अत्यधिक आनंद आता था।उनके यही संस्कार धीरे धीरे वृद्धि को प्राप्त होते गए तो मुस्कुराते हुए संयम पथ पर पग बढ़ाते हुए अरविन्द जी को देख कर आचार्य श्री सन्मति सागर जी ने २ फरवरी १९८० में ग्राम बुढार (जिला-शेहडोल ,म.प्र.)में क्षुल्लक दीक्षा प्रदान की और उनका नाम श्री १०५ क्षु. पूर्ण सागर रखा गया।उस समय उनकी आयु १७ वर्ष थी।

क्षु. पूर्ण सागर जी महाराज की मुनि बनने की आंतरिक इच्छा थी।तीन वर्ष बाद ही परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विमल सागर जी के संघ का औरंगाबाद नगरी में समागम हुआ और पूर्ण सागर जी की इच्छा फलित हुई।आचार्यश्री ने ९ दिसंबर १९८३ को उनकी मुनि दीक्षा के संस्कार किये और २० वर्ष की आयु में क्षु. पूर्ण सागर जी मुनि विराग सागर हो गए।
मुनि विराग सागर जी की कठोर साधना तथा गुरु कृपा के मंगल आशीर्वाद के फल स्वरूप श्री सिद्ध क्षेत्र द्रोणगिरी पर ८ नवम्बर १९९२ के शुभ दिवस पर समाज एवं विद्वत वर्ग द्वारा आपको महोत्सव पूर्वक आचार्य पद प्रदान किया गया। आचार्य श्री की अपार करुणा,मुख की आभा एवं शरीर की कान्ति से प्रभावित होकर कई श्रावक-श्राविकाए शिष्यत्व ग्रहण कर अपना जीवन आपके चरणों में समर्पित कर निरापद होते है।विराग वाटिका में सुरभित फूल और कलियाँ खिल रही है।आचार्य श्री एक सृजनशील गणेषक तथा चिन्तक है।अपने गहरे चिंतन की छाप प्रकट करने वाला उनका साहित्य निम्न उल्लेखित है- शुद्धोपयोग ,आगम चकखू साहू ,सम्यक दर्शन ,सल्लेखना से समाधि ,तीर्थंकर ऐसे बने,कर्म विज्ञान भाग १ व् २ ,चैतन्य चिंतन ,साधना,आरधना आदि|
कुछ वर्ष पूर्व भिलाई में आचार्य श्री पर उपसर्ग हुआ वह निश्चित ही उनके लिए परीक्षा की बेल थी ,जिसमे आचार्य श्री खरे उतरे ।एक वीतरागी संत ,शांत संयमित परिणामो के साथ क्षमा भावना से किस तरह उपसर्ग विजेता हो सकता है इसका परिचय सारे दुनिया को दिलाया।आपके द्वारा इस प्रसंग में दिखाई गयी क्षमा शीलता तपस्वियों के इतिहास में अंकित रहेगी। आचार्य श्री के सम्पूर्ण जीवन में ऐसा प्रतीत होता है कि संयम व् साधना के बल पर असंभव को भी संभव बनाया जा सकता है।बचपन का संकल्प और मन की शक्ति के बल पर तथा स्थितियों का संयोग इन तीनो के बल पर आचार्य श्री के जीवनको महान बना दिया।

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