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दिगम्बरत्व के महान प्रतिष्ठाचार्य

श्री आदिसागर जी [अंकलीकर]

दिगम्बर साधु साधना की चरमोत्कर्ष दशा का नाम है दुनिया में अनेक प्रकार की साधनायें है और उनको साधने वाले अनेक प्रकार के साधु भी दुनिया के हर धर्म में साधना को स्वीकार किया गया है, जो विविध रूपों में हर धर्म के साधुओं द्वारा साधी जाती है।

हर साधना का प्रयोजन कोई न कोई सिद्धि होता है। सिद्धियाँ भी दो प्रकार की होती है एक लौकिक सिद्धि और दूजी पारलौकिक समीचीन पथ बोध के अभाव में अधिकांश साधक लौकिक सिद्धियों के लिये साधना के असम्यक् स्वरूपों से जुड़कर संसार परिवर्धन के हेतु बन जाते हैं। दुनियाँ के सभी साधकों की भीड़ से जुदा दिगम्बर साधक होता है, जिसकी साधना का लक्ष्य लौकिक सिद्धियाँ नहीं, पारलौकिक (आत्म (सिद्धि) सिद्धि की प्राप्ति करना होता है। इसीलिये वह जिनागम पंथानुरूप साधना के सम्यक् स्वरूप से जुड़ता है, और शनै: शनै: आत्मशुद्धि की दिशा में अग्रसर होता जाता है। दुनिया के सारे साधना पथों से दिगम्बर जैन साधक का साधनापथ बिल्कुल जुदा और जटिल होता है क्योंकि यहाँ इच्छा निरोध की ठोस भूमि पर इस पथ का निर्माण किया जाता है। समस्त लोकेषणाओं से परे जब दिगम्बर साधक अपनी साधना को मूर्त रूप देता है तो अनेक प्रकार की लौकिक सिद्धियाँ उसके चरणों में नत हो जाती हैं। लेकिन यो परमयोगी लौकिक आकांक्षाओं से विरक्त एवं आत्मसिद्धि में गहन अनुरक्ति के कारण इन लौकिक सिद्धियों के मायाजाल में उलझते नहीं हैं अपितु पूरी दृढ़ता के साथ अपने कठोर साधना पथ पर सतत गतिशील बने रहते हैं और एक दिन अपने लक्ष्य को उपलब्ध हो जाते हैं। वर्तमान में दिगम्बर जैन साधु की कठोरतम चर्या वैज्ञानिकों के लिये आश्चर्यकारी एवं दुनिया के समस्त सम्प्रदाय एवं उनके साधकों के लिये श्रद्धा का विषय बनी हुई है।

इस कठोर, अनुशासित एवं दुःसाध्य श्रमण साधना के सुपथिकों की अनादिकालीन सुदीर्घ श्रृंखला में सम्प्रति काल से लगभग 150 वर्ष पूर्व जब 19वीं सदी का सूर्य आहिस्ता आहिस्ता अस्ताचल की ओर अग्रसर था एवं 20वीं सदी का सूर्य समय के गर्भ से प्रसवित होने को प्रतीक्षित था, तब महाराष्ट्र प्रान्त के अंकलीग्राम में एक महान श्रमण सूर्य ने जन्म लिया, जो कालान्तर में 20 वीं सदी के प्रथमाचार्य के रूप में भव्यों के आस्था केन्द्र बनें। जिन्हें हम आज महान तपस्वी आचार्य श्री आदिसागर जी (अंकलीकर) के नाम से श्रद्धापूर्वक स्मरण करते हैं।

इस पंचमकाल में भी चतुर्थकालीन श्रमण साधना का अनुपम आदर्श प्रस्तुत करने वाले आचार्य श्री आदिसागर जी (अंकलीकर) अपने शैशव काल से ही बैराग्याराधना की विस्मित करने वाली लकीरें खीचने लगे थे। धीरे-धीरे उन लकीरों में एक कालजयी श्रमण की तस्वीर नजर आने लगी। सन् 1913 में मगशिर कृष्णा दोज के दिन लगभग 47 वर्ष की आयु में आप श्री ने 24 प्रकार के परिग्रहों का त्याग कर स्वात्म में संवेदी भगवती जिनदीक्षा कुंथलगिरी की सिद्धभूमि पर धारण की छठवें सातवें गुणस्थानों की तरतमता के बीच आत्मरमणता एवं व्यवहार 28 मूलगुणों का पालन करते हुये, दिगम्बरत्व के पथ पर इस सिद्धत्य के अविराम यात्री को यात्रा करते हुये अभी दो ही वर्ष हुये थे, कि अनेक मुमुक्षुओं के प्रगाढ़ पुण्य ने सन् 1915 में ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी के दिन आपको आचार्य पद पर प्रतिष्ठित कर दिया। इन पलों का साक्षी बनने का सौभाग्य उस समय जयसिंहपुर नगरी को प्राप्त हुआ था।

सूरीपद पर आसीन होने के बाद आप और अधिक आत्मस्पर्शी-पुरुषार्थ में लीन रहने लगे। यही कारण रहा कि पंचमकालीन अन्य श्रमणों की तरह आपका साधना काल किसी जिनालय या वसतिका में नहीं अपितु चतुर्थकालीन श्रमणों की तरह, पर्वतों की चोटी, नदियों के तट, घनघोर वनों में वृक्षों की कोठर, या पर्वतों की गुफाओं में आपने निर्लिप्त साधना को साधा।

पूज्य आचार्य श्री सात दिन के पश्चात एक बार आहार चर्या हेतु समीपस्थ नगर अथवा ग्राम में आया करते थे, और सात दिन के पश्चात् जो आहार होता था वो भी एक ही वस्तु का होता था। अर्थात् वो आहार में मात्र एक वस्तु ग्रहण करते थे। एवं आहार के पश्चात पुनः 7 दिन के लिये निर्जन बन गुफा आदि में जाकर अपनी आत्म साधना में संलग्न हो जाते थे। पूरे साधु जीवन में आपकी आहार चर्या का ऐसा ही क्रम चलता रहा। ऐसे महान आचार्य भगवंत के विषय में आचार्य श्री शान्तिसागर जी महाराज कहा करते थे कि जब हमारे गांव में आचार्य श्री आदिसागर जी आहार चर्या हेतु आते थे वो बो बचपन में अपनी माँ के साथ उनको आहार कराते थे एवं आहार चर्या के बाद अपने मजबूत काँधों पर आचार्य श्री आदिसागर जी को बैठाकर वेदगंगा और दूधगंगा नदी पार कराके गाँव से बाहर तक पहुँचाकर आते थे। आचार्य श्री शान्तिसागर जी महाराज उनकी विरक्त निर्दोष चर्चा से खूब प्रभावित रहते थे।

पूज्य आचार्य श्री आदिसागर जी (अंकलीकर) सिर्फ अवस्था में ही श्रमण जगत के शिरोमणि आचार्य न थे अपितु आपकी तपःपूत साधना से जो साहित्य सृजित हुआ वह भी सरस्वती के कोष को समृद्ध करने वाला था। आपकी लेखनी से अनेक कृतियों का उदय हुआ, जो निम्न है:-

1. प्रायश्चित्त विधान- आपकी एक महत्वपूर्ण कृति है- “प्रायश्चित विधान “यह प्राकृत भाषा में लिखी गयी आपकी कृति सूरी जगत में समादृत एवं सर्वमान्य है, इस कृति में श्रमणों एवं श्रावकों द्वारा होने वाली प्रमाद जन्य गल्तियों की प्रायश्चित्त का आपने सांगोपांग वर्णन किया है। यह कृति आपकी लेखनी से भाद्रपद शुक्ला पंचमी वि.सं. 1972 सन् 1915 में प्रस्तुत हुई।

2. जिनधर्म रहस्य- आपकी यह कृति गागर में सागर की सूक्ति को चरितार्थ करने वाली महान रचना है। जिसमें जिनागम के अनेक ऐसे विषय जो जन सामान्य के लिये समझना दुरुह था। उन गूढ विषयों की सरल एवं सुगम्य व्याख्या आपके द्वारा की गई है। यह ग्रंथ आपके द्वारा संस्कृत भाषा में सृजित हुआ और इस ग्रंथ की रचना मग़शिर शुक्ला दोज. बि. सं. 1999, सन् 1943 में हुई।

3. दिव्य देशना- समय समय पर आपके द्वारा प्रदत्त जिनागम को समृद्ध करने वाली और श्रमण एवं श्रावकाचार को सुदृढ़ करने वाले अनेक महत्वपूर्ण विषयों पर दिये गये धर्मोपदेशों को इसमें संकलित किया गया। वह कृति आपकी मूल भाषा कन्नड़ में लिखी गई। जिसका रचना काल मगशिर शुक्ला एकादशी बि.सं. 1999, सन् 1942 रहा।

4. शिवपथ- जिनागम पंथ की उद्घोषक पूज्य आचार्य प्रवर की यह संस्कृत भाषा में लिपिबद्ध कृति श्रमण जगत के लिये अमृत्य निधि है इस कृति को पूज्य आचार्य श्री ने भाद्रप्रद चतुर्थी, वि.सं. 2000, सन् 1943 में सृजित किया था।

5. वचनामृत- अरिहंत शासन के महत्वपूर्ण सूत्रों का समावेश कर पूज्य आचार्य श्री ने मराठी भाषा में यह ग्रंथ लिखा। जो आदर्श ग्रंथ के रूप में सर्वमान्य एवं पूज्य है। इसका रचनाकाल माघ शुक्ल चतुर्दशी वि.सं. 2000, सन् 1943 प्राप्त है।

6. उद्बोधन- यह भी एक कन्नड़ भाषा में लिखी गई पूज्य आचार्य श्री की अमर कृति है। इसकी रचना फाल्गुन शुक्ला एकादशी वि.सं. 2000 सन् 1943 में हुई।

7. अंतिम दिव्य देशना- इस कृति में उस समय के मंगल उपदेश को संकलित किया गया है जो पूज्य आचार्य श्री ने अपनी मातृभाषा कन्नड़ में फाल्गुन कृष्ण त्रयोदशी वि.सं. 2001 सन् 1944 के दिन, समाधि के पूर्व समाज हित में प्रदान किया था।

आचार्य श्री ने इनके अलावा और अनेक स्फुट रचनायें की थीं, जो उपलब्ध नहीं हो सकी। प.पू. आचार्य श्री एक कालजयी साधक थे जिनका अप्रतिम साधनाकाल अनेकों घोर उपसर्ग और परिषहों के बीच समत्व की डगर पर वर्धमान रहा।

पूज्य आचार्य श्री ने आश्विन शुक्ला दसमी, विक्रम सं. 2001, सन् 1943 को अपने सुयोग्य शिष्य 18 भाषाओं के ज्ञाता, मुनि श्रेष्ठ श्री महावीर कीर्ति जी को अपना आचार्य पद प्रदान कर सल्लेखना की ओर अग्रसर हुये एवं फाल्गुन कृष्णा त्रयोदशी के दिन कुंजवन उदगाँव में आपने एक आदर्श समाधि मरण किया। आपके समाधि महामहोत्सव में वैयावृत्ति की भावना से आचार्य श्री शान्तिसागर जी (दक्षिण) अपने संघ सहित उदगाँव पहुँचे थे। साथ ही आचार्य देशभूषण (उस समय (मुनि) सहित देश के सभी महान दिगम्बर जैन साधक वहाँ उपस्थित थे। वर्तमान में समाज में तीन आचार्य परम्परायें निर्वाध रूप से चल रही हैं जिसमें सर्वाधिक प्रशिष्य लगभग 1000 से ऊपर साधु, साध्वियाँ आचार्य श्री आदिसागर (अंकलीकर) परम्परा को शोभित कर रहे हैं। पूज्य आचार्य श्री की इसी गौरवमयी परम्परा में सुरिगच्छाचार्य श्री विरागसागर जी महाराज के सुयोग्य शिष्य वर्तमान के भावलिंगी संत परम पूज्य राष्ट्रयोगी श्रमणाचार्य श्री 108 विमर्शसागर जी गुरुदेव के चरण कमलों मेरा त्रय भक्तिपूर्वक नमोस्तु एवम् आचार्य श्री आदिसागर जी (अंकलीकर) को पुनः सविनय भाववंदना……………….नमोस्तु गुरुदेव…….!!!!!!!!

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