अमर शहीद : मोतीचंद जैन
१- सोलापुर जिला के करकंब गाँव में सेठ पद्मसी के यहाँ ई. सन् १८९० में मोतीचंदजी का जन्म हुआ था। पिताजी का देहान्त होने पर वे अपने मामा, मौसी के यहाँ सोलापुर आए। वहीं आपका प्रारम्भिक अध्ययन हुआ।
२- दुधनी गाँव से शिक्षा के लिए सोलापुर में आए बालचंद, देवचंदजी (मुनि श्री समन्तभद्र महाराज) आपके परममित्र थे। आप दोनों ने कुंथलगिरि सिद्धक्षेत्र पर देशभूषण—कुलभूषण भगवान् के समक्ष आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत अंगीकार किया था।
३- देशभक्ति की भावना से ओतप्रोत होकर सन् १९०६ में आपने बालोत्तेजक समाज ‘सोलापुर’ की स्थापना तिलकजी के सान्निध्य में की थी।
४- धर्म शिक्षा एवं राष्ट्रसेवा की भावना मन में लेकर आप देवचंद, बालचंद आदि साथियों के साथ जयपुर के पं. अर्जुनलालजी सेठी के पास पहुँचे।
५- पं. अर्जुनलालजी भी क्रांतिकारी विचारधारा के थे। अंग्रेजों के सहयोगी समर्थन किसी महंत के हत्यारों की सहायता करने के दण्ड में आपको आरा कोर्ट ने फांसी की सजा सुनाई, तब वन्दे मातरम् कहते हुए उन्होंने हँसते—हँसते सजा स्वीकार कर उत्तम समाधि साधना की।
६- अंतिम इच्छा भगवान् के दर्शन की होने पर प्रात: ४ बजे ही गाँव के मंदिर से पार्श्वनाथ भगवान् की मूर्ति जेल के कमरे में लाई गई, उत्कृष्ट भावों से उन्होंने भगवान् के दर्शन किए, सामायिक की और तत्त्वार्थसूत्र का पठन कर एकाग्रता से सामायिक पाठ का श्रवण किया तथा एक घंटे बाद मात्र २५ वर्ष की आयु में फाँसी लगा दी गई।
७- आध्यात्मिक जागृति और सम्यग्ज्ञान का प्रतिफल रहा कि वे अन्त समय तक आकुल—व्याकुल नहीं रहे अपितु प्रसन्नतापूर्वक फाँसी के फन्दे पर झूल गए।
कारागृह में रहते हुए उन्होंने अपने युवामित्रों के लिए खून से पत्र लिखा था, जिसके कुछ बिन्दु इस प्रकार हैं—
८- जो हुआ सो हुआ और जो हुआ वह होने ही वाला था, परन्तु हमें ऐसी स्थिति में निराश होने का कोई कारण नहीं क्योंकि जिन्होंने अनंतचतुष्टय प्राप्त किया, जो अनिर्वचनीय आनंद में लीन हुए हैं, उन महान् पूर्वजों का और तेजस्वी आचार्यों का अभेद्य छत्र हमारे माथे पर है।
९- दिन और संकट बीत जाएँगे, लेकिन कृति हमेशा के लिए चिरंतन रहेगी। कर्तव्य दक्षता से काम करें तो स्वदेश की और जैनधर्म की उन्नति सर्वस्वरूप से अपने हाथ में ही है।
१०- जैनधर्म की उन्नति के लिए हमें संकट सहने के लिए सदा तैयार रहना चाहिए।
११- सिर्फ खुद का पेट भरने के लिए और परिवार के पोषण के लिए मैं विद्वान बनूँ तो उस विद्वत्ता का क्या काम है ?
१२- मैं जो कुछ सीखूँगा वह स्वधर्म के लिए ही, अमीर हुआ तो सिर्फ स्वधर्म के लिए, गरीब रह गया तो भी स्वधर्म के लिए ही, मैं जिऊँगा तो सिर्फ स्वधर्म के लिए और मरूँगा तो भी स्वधर्म की सेवा में।