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अकबर पर जैनधर्म का प्रभाव


  • विश्व के सर्वकालीन महान् नरेशों में मुगल सम्राट् अकबर की गणना की जाती है। उसकी सफलता के कारणों में उसकी उदार नीति, न्याय-प्रियता, धार्मिक सहिष्णुता, वीरों और विद्वानों का समादर तथा स्वयं को भारतीय एवं भारतीयों का ही समझना सम्भवतया प्रमुख थे।
  • अकबर के राज्यकाल में लगभग दो दर्जन जैन साहित्यकारों एवं कवियों ने साहित्य सृजन किया, कई प्रभावक जैन संत हुए, मंदिरों का निर्माण हुआ, जैन तीर्थ यात्रा संघ चले और जैन जनता ने कई सौ वर्षों के पश्चात् पुनः धार्मिक संतोष की साँस ली। स्वयं सम्राट् ने प्रयत्नपूर्वक तत्कालीन जैन गुरुओं से सम्पर्क किया और उनके उपदेशों से लाभान्वित हुए।
  • एक बार सम्राट् को भयानक शिरशूल हुआ तो उसने यतिजी को बुलवाया। उन्होंने कहा कि वह तो कोई वैद्य-हकीम नहीं हैं, किन्तु सम्राट् ने कहा कि उनपर उसका विश्वास है, वह कह देंगे तो पीड़ा दूर हो जायेगी । यतिजी ने सम्राट् के मस्तक पर हाथ रखा और उसकी पीड़ा दूर हो गयी। मुसाहबों (दरबारियों) ने इस खुशी में कुर्बानी कराने के लिए पशु एकत्र किए। सम्राट् ने सुना तो उसने तुरन्त कुर्बानी को रोकने का और पशुओं को छोड़ देने का आदेश दिया और कहा कि मुझे सुख हो, इस खुशी में दूसरे प्राणियों को दु:ख दिया जाए, यह सर्वथा अनुचित है।
  • मुनि शान्तिचन्द्र ने भी सम्राट् को बड़ा प्रभावित किया था। एक वर्ष ईदुज्जुहा (बकरीद) के त्यौहार पर जब वह सम्राट् के पास थे तो एक दिन पूर्व उन्होंने सम्राट् से निवेदन किया कि वह उसी दिन अन्यत्र प्रस्थान कर जायेंगे, क्योंकि अगले दिन यहाँ हजारों-लाखों निरीह पशुओं का वध होने वाला है। उन्होंने स्वयं कुरान की आयतों से यह सिद्ध कर दिखाया कि कुर्बानी का मांस और रक्त खुदा तक नहीं पहुँचता, वह इस हिंसा से प्रसन्न नहीं होता, बल्कि परहेजगारी से प्रसन्न होता है, रोटी और शाक खाने से ही रोजे कबूल हो जाते हैं । इस्लाम के अन्य अनेक धर्म ग्रन्थों के हवाले देकर मुनिजी ने सम्राट् और दरबारियों के हृदय पर अपनी बात की सच्चाई जमा दी । अतएव सम्राट् ने घोषणा करा दी कि इस ईद पर किसी जीव का वध न किया जाये।
  • पाण्डे राजमल्ल ने १५८५ ई. के लगभग लिखा कि-धर्म के प्रभाव से सम्राट् अकबर ने जजिया (एक प्रकार का कर जो हिन्दुओं पर लगता था) बन्द करके यश का उपार्जन किया, हिंसक वचन उसके मुख से भी नहीं निकलते थे, जीवहिंसा से वह सदा दूर रहता था, अपने धर्मराज्य में उसने द्यूतक्रीड़ा और मद्यपान का भी निषेध कर दिया था ।
  • विद्याहर्ष सूरि ने अपने अंजना-सुंदरीरास (१६०४ ई०) में अकबर द्वारा जैन गुरुओं के प्रभाव से गाय, भैंस, बैल, बकरी आदि पशुओं के वध का निषेध, पुराने कैदियों की जेल से मुक्ति, जैन गुरुओं के प्रति आदर प्रदर्शन, दान-पुण्य के कार्यों में उत्साह लेना इत्यादि का उल्लेख किया है।
  • महाकवि बनारसीदास ने अपने आत्मचरित में लिखा है कि जब जौनपुर में अपनी किशोरावस्था में उन्होंने सम्राट् अकबर की मृत्यु का समाचार सुना था तो वह मूर्च्छित होकर गिर पड़े थे और अन्य जनता में भी सर्वत्र त्राहि-त्राहि मच गयी थी। यह तथ्य उस सम्राट् की लोकप्रियता का सूचक है।
  • फतहपुरसीकरी के महलों में अपने जैन गुरुओं के बैठने के लिए सम्राट् ने विशिष्ट जैन कलापूर्ण सुन्दर पाषाणनिर्मित छतरी बनवायी थी, जो ज्योतिषी की बैठक कहलाती है।
  • अकबर कहता था कि मेरे लिए यह कितने सुख की बात होती कि यदि मेरा शरीर इतना बड़ा होता कि समस्त मांसाहारी केवल उसे ही खाकर संतुष्ट हो जाते और अन्य जीवों की हिंसा न करते। प्राणी हिंसा को रोकना अत्यन्त आवश्यक है, इसलिए मैंने स्वयं मांस खाना छोड़ दिया है।
  • स्त्रियों के सम्बन्ध में वह कहा करता था, यदि युवावस्था में मेरी चित्तवृत्ति अब जैसी होती तो कदाचित् मैं विवाह ही नहीं करता। किससे विवाह करता? जो आयु में बड़ी हैं, वे मेरी माता के समान हैं, जो छोटी हैं, वे पुत्री के तुल्य हैं और जो समवयस्का हैं उन्हें मैं अपनी बहनें मानता हूँ ।
  • वर्ष के कुछ निश्चित दिनों में पशु-पक्षियों की हिंसा को उसने मृत्युदण्ड का अपराध घोषित कर दिया था।
  • स्मिथ कहता है कि इस प्रकार का आचरण और जीवहिंसा निषेध की कड़ी आज्ञाएँ जारी करना जैन गुरुओं के सिद्धान्तों के अनुसार चलने का प्रयत्न करने के ही परिणाम थे और पूर्वकाल के जैन नरेशों के अनुरूप थे, क्या आश्चर्य है जो अनेक वर्गों में प्रसिद्ध हो गया कि अकबर ने जैनधर्म धारण कर लिया है।

प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और महिलाएँ ग्रन्थ से साभार

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