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What's Jinagam Panth ?

जिनागम में वर्णित पंथ ही जिनागम पंथ है |

-भावलिंगी संत श्रमणाचार्य श्री विमर्शसागर जी महामुनिराज

सदाचार, आत्मीयता, समन्वय, बंधुत्व की भावना आदि उदात्त गुणों के श्रृंगार से सुशोभित जैन समाज पंथ की बात आते ही अपने श्रृंगार को छोड़ द्वेष, घृणा, वैमनस्य एवं कषायाविष्ट भावों से अपने को बीभत्स कर लेती है। एक जैनी भाई से पूछ लिया जाये कि आप किस पंथ के हैं? ‘पंथ’ शब्द सुनते ही उसके उदान गुणों को असूया एवं कड़वाहट का गृहण लग जाता है।

पाँच रंग का झण्डा थामने वाली जैन समाज पंथ’ का नाम आते ही अपने-अपने रंग (पंथ) का झण्डा थाम लेती है। कोई 13 पंथ का झण्डा थामता है, तो कोई 20 पंथ का, कोई साढे सोलह पंथ का झण्डा थामता है तो कोई शुद्ध तेरह पंथ का, तो कोई तारण पंथ के झण्डे को थाम लेता है। आज हमारे जैन भाईयों के पास अपने प्राचीन सिद्धक्षेत्रों, अतिशय क्षेत्रों के पोषण के लिए समय भले ही नहीं है लेकिन अपने-अपने पंथों के पोषण के लिए सभी जैनी भाई कटिबद्ध हैं। अहिंसा की दुहाई देते हुये जिस जैन समाज ने गिरनार जी’ ‘बद्रीनाथ जी’ ‘बालाजी’ आदि अपने तीर्थ क्षेत्रों को अपनी आँखों के सामने गंवा दिया। वही अहिंसक जैन समाज “पंथों’ के नाम पर इतना हिंसक रूप कैसे अपना लेती है?

आज जनसंख्या में मुट्ठीभर कही जानेवाली जैन समाज ‘पंंथ’ शब्द सुनते ही अपनी मुट्ठी खोलकर अन्य समाजों को बताने लगती है, हम एक नहीं अलग-अलग हैं, अखण्ड नहीं खण्ड-खण्ड हैं।

जिस जैन समाज में राग-द्वेष के त्यागी ऐसे वीतरागी देव, वीतरागी गुरु एवं वीतरागता का उपदेश करने वाली माँ जिनवाणी की पूजा-आराधना की जाती है। ऐसे इन वीतरागी आराध्य के आराधकों के मन आराधना विधी को लेकर एक-दूसरे के प्रति ही इतने राग-द्वेष से कब और कैसे भर गये ?

भगवान महावीर स्वामी के पंचशील सिद्धांत की अनुयायी जैन समाज इन पंचअशील पंथों की अनुयायी हो, खुद को गौरवान्वित क्यों मानने लगी? आखिर जैन समाज एक शिक्षित एवं विवेकी समाज कही जाती है फिर धर्म क्षेत्र में इतने अज्ञान एवं अविवेक का परिचय क्यों ?

आज जो ‘पंथ’ शब्द सबसे ज्यादा विवाद का कारण बना हुआ है, प्रथम हम ये समझें ‘पंथ’ कहते किसे हैं?

 ‘पंथ’ शब्द का शाब्दिक अर्थ होता है-  मार्ग, रास्ता और जो उस पर चलनेवाला है, वह ‘पंथी’ कहलाता है|

अब मूल बात पर लौटते हैं, हम अपना 13 पंथ, 20 पंथ इत्यादि पंथ कहते हैं, तो प्रश्न है कि इन पंथों का नाम कौन से सर्वज्ञ देव की बाणी में आया है? वर्तमान में यहाँ सर्वज्ञ देव का अभाव है ‘साधु’ सो उनके लिए आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी कह रहे हैं-”आगम चक्खू साहू” अब शेष बचता है तो एकमात्र जिनागम, तो क्या इन पंथों के नाम जिनागम में आये है ?
हम अपने को भगवान महावीर स्वामी के अनुयायी कहते हैं तो कम से कम इनका इतिहास हमें पता तो है, जानकारी तो है लेकिन जो हम अपने को 13 पंथी, 20 पंथी, शुद्ध 13 पंथी इत्यादि कह रहे हैं तो इन पंथों का इतिहास क्या है? कौन से जिनागम में इनका नाम उल्लिखित है, क्या हमें इसकी जानकारी नहीं करनी चाहिये ?

जब हम 4 अनुयोग रूप जिनागम देखते हैं तो इनमें से किसी एक पंथ का नाम तक नहीं मिलता। वहाँ तो एकमात्र पंथ (मार्ग) आया “सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः”। इसी पंथ (मार्ग) की व्याख्या भगवान आदिनाथ से लेकर महावीर स्वामी तक हुई और भविष्य में भी जितने तीर्थंकर होंगे, सभी एकमात्र इसी पंथ (मार्ग) की व्याख्या करते रहेंगे। वे न 13 पंथ की व्याख्या करेंगे, न 20 पंथ की व्याख्या करेंगे।
जिनागम में अपना हितकारी एक पंथ/मार्ग पहले ही बता दिया गया है तो फिर इन नये-नये पंथों की आवश्यकता कहाँ है? जिनागम में वर्णित पंथ से बाह्य जितने भी पंच समय-समय पर छदमस्थों के द्वारा चलाये गये, अपनी-अपनी कषायपूर्ति के कारण चलाये गये। किसी की किसी से नहीं बनी या किसी को जिनागम कथित कोई क्रियाविधि समझ में नहीं आई, बस उसी ने अपना एक नया पंथ चला दिया। बाक्पटुता एवं पुण्य का योग रहा सो पंथ के पंथी भी मिल गये और बस नया पंथ बनकर तैयार जैसे आजकल कई जगह हम देखते ही हैं कि दो लोगों में मंदिर को लेकर किसी बात पर विवाद हो गया। पहला व्यक्ति बोला-में कल से इस मंदिर में नहीं आऊंगा, अपना दूसरा मंदिर बनाऊंगा। इस पर दूसरे ने भी कह दिया-ठीक है बना लोगे तो बना लेना। कुछ ही दिनों में उसी मंदिर के सामने दूसरा मंदिर बनकर खड़ा हो गया। मंदिर बनानेवाले तो चले गये लेकिन उनके ट्रस्टी आज तक आपस में लड़ रहे हैं। बिल्कुल ऐसे ही इतिहास इन पंथों का है। जब हम इन पंथ का इतिहास खोजते हैं तो प्रथम तो कोई ठोस इतिहास है ही नहीं और जो इतिहास प्राप्त होता भी है, वह बड़ा हास्यास्पद है|

यथा:- १. जयपुर में 33 लोगों का संगठन था। पूजा पद्धति को लेकर उनमें विवाद हो गया। 13 लोगों ने अचित्त पूजा को स्वीकारा, 20 लोगों ने सचित्त पूजा को स्वीकारा उन 13 लोगों से 13 पंथ और 20 लोगों से 20 पंथ शुरु हो गया। उन 33 लोगों की लड़ाई हम आज तक बड़े गर्व के साथ लड़ रहे है।

२. तो कहीं मिलता है कि पं. दौलतराम के पुत्र गुमानीराम ने इस 13 पंथ की स्थापना की। तो कहीं, पं. बनारसीदास (आगरा, उ.प्र.) ने लगभग 450-500 वर्ष पूर्व इस 13 पंथ को शुरु किया, ऐसा भी मिलता है।

३. राजस्थान मे नागोर शहर के कुछ विद्वानों को कुछ क्रियायें 13 पंथ की नहीं रूचि, कुछ क्रियायें 20 पंथ की नहीं रूचि यो उन्होंने अपने हिसाब से क्रिया विधि तैयार की और में कहा “न हम 13 पंथी न हम 20 पंथी। 13+20=33 और इसके आधे 16 1/2 तो आज से हम साढ़े सोलह पंथी एक और नया पंथ बनकर तैयार।

४. शुद्ध तेरह पंथ, ये बिल्कुल अभी-अभी प्रगट हुआ है, हमारे ही कुछ स्वाध्यायी भाईयों ने अब भाई कहूँ या जादूगर अचानक से एक नया पथ खड़ा कर दिया है और जब से ये ‘शुद्ध तेरह पंथ’ आया, तक से बेचारे पुराने वाले ’13 पंथी’ अशुद्ध हो गये।

५. ‘तारण पंथ’ ये तो तारण भाई स्वयं ही कहते हैं कि 500 वर्ष पूर्व शुरु हुआ है। एक संत जी हुये जिनका नाम तारण भाईयों को भी ज्ञात नहीं हो सका। हाँ, इतना अवश्य है, उनकी एक उपाधि थी ‘तारण तरण’ सो उसी से एक और नया पथ चल पड़ा ‘तारण पंथ’ ।

६. श्वेताम्बर पंथ, इसका उदयकाल भद्रबाहु स्वामी के काल का है, उस समय घटी 12 वर्ष के अकाल की घटना से सभी जैनी भाई परिचित ही हैं।

अब विचार करना है कि इन 400-500 साल में हुये इन पंथों के पूर्व भी तो हम किसी पंथ/मार्ग पर चला करते थे, वो कौन सा  पंथ/मार्ग था? वो पंथ था जिनागम पंथ। लेकिन अहो! पंचमकाल की बलिहारी, आज साधु संत भी जिनागम में बताये हुये पंथ को छोड़, विद्वानों के द्वारा बताये हुए पंथों के पंथी हो गये। वीतरागी कहे जानेवाले साधु-संत अपने को 13-20 पंथी साधु कहने अपना बड़ा सम्मान समझने लगे हैं। अब जब एक 13 अथवा 20 पंथी साधु- श्रावक, दूसरे 20 अथवा 13 पंथी साधु-श्रावक से मिलता है, तब स्वयं बताओ, वीतराग धर्म जयवंत होता है, या राग-द्वेष जयवंत होता है।

बस इन्हीं नाना पंथों के व्यामोह में फँसे श्रावक एवं कतिपय संतों के कारण लड़खड़ाती जैन एकता को मैंने नारा दिया “जिनागम पंथ जयवंत हो” का ।

क्या है जिनागम पंथ ?
जो प्राणीमात्र के कल्याण के निमित्त समोशरण सभा में विराजमान जिनेन्द्र देव की दिव्यध्वनि में जो आया, उसे गणधर देव ने 4 अनुयोग रूप गूंथा और उस वाणी को लिपिबद्ध कर आगम के रूप में हमारे प्राचीन आचार्यों ने हम तक पहुँचाया। चूँकि वो आगम जिनेन्द्र देव के द्वारा कहा हुआ है सो जिनागम कहलाया और उस जिनागम में जो मार्ग/पंथ आया वो ही ‘जिनागम पंथ’ कहलाया।

मैं जानता हूँ कि दूध का जला, छाछ भी फूंक-फूंककर पीता है। ऐसे ही आज नाना पंथों के कुचक्रों में फंसी जैन समाज में कोई जैनी भाई ये भी सोच सकता है कि लो आचार्यश्री ने एक और नया पंथ चला दिया। तो भाई मैं कोई नया पंथ नहीं चला रहा हूँ। न अपनी कोई नई नियम सारणी बता रहा हूँ। मैं तो स्वयं पूछ रहा हूँ कि वर्तमान में कौन-सा सर्वज्ञ बैठा था, जो इन 13-20 इत्यादि पंथों की नियम-सारणी बता गया ? अरे! ये सर्वज्ञों की वाणी नहीं, अल्पज्ञों का मार्ग है।

मेरा तो सीधा-सीधा कहना है कि जिन पंथों के नाम तक जिनागम में नहीं हैं, इन सब पंथों के वसनों को उतार फैको और जो चार अनुयोग रूप जिनागम में जो और जैसा अनादि अनिधन पंथ/मार्ग आया हुआ है, उस “जिनागम पंथ” के पंथी बनें और बात रही क्रिया विधि-आराधना पद्धति की, तो जो पद्धति जिनागम में हमारे लिए बताई गई है, उसको हम आज्ञा सम्यक्त्वी हो स्वीकारें। अपनी-अपनी छमस्थ बुद्धि के कुतर्कों से जिनागम में वर्णित क्रिया विधि-आराधना विधि का अवर्णवाद न करें। भो भव्यात्माओ! हमें पूजना तो उन्हीं अपने 24 तीर्थंकरों को ही है। अब बात रही किस विधि से पूजना है? तो निर्णय आप स्वयं करें, छदमस्थों के बताये पंथों के अनुसार पूजना है अथवा जो सर्वज्ञ देव कथित चार अनुयोग रूप जिनागम है. उसमें बताया हुआ जो पंथ यानि मार्ग है, उस जिनागम पंथ के अनुसार पूजना है।


 

जिनागम पंथ और भावलिंगी संत 

जयदु जिणागम पंथो
जयदु भावलिंगी संतो
हो जयवंत जिनागम पंथ
जिस पंथ के कंत
प्रभु परमेष्ठी अरहंत
बतलाया प्रभु ने वही पंथ
जो करता है भवसागर का अंत
वही है जिनागम पंथ!
कहा सभी अरहंतों ने
संजोया द्वादशांग रूप
गणधर भगवंतों ने,
जिसको आचरित किया
सभी संतों ने
जो अनादि से था
रहेगा अनंत काल तक
जिसका उद्घोष कर रहे हैं
वर्तमान के सच्चे भावलिंगी संत
वही है जिनागम पंथ!
तेरह, बीस आदि पंथ
होगा इन पंथों का अंत
क्योंकि,
उदय का अस्त,
जन्मे का मरण
होता है अवश्य
जिसका उदय नहीं,
न ही अस्त
अतः जो है अनादि अनिधन
वही है जिनागम पंथ!
कृतघ्नी, कृतज्ञ में अंतर सिर्फ इतना
कृतघ्नी उपकारी के उपकार नहीं मानता
कृतज्ञ मानता है सहज
कृतघ्नी वह जो
जिनागम को पड़कर उसमें भेद करे
वह है 13 और 20 पंथी
कृतज्ञ वह जो
जिनागम पढ़कर श्रद्धा करे उसकी
वही श्रद्धा है जिनागम पंथी।
जिनागम को पढ़कर डाला उसमें भेद
जिस थाली में खाया उसी में छेद
छेद-भेद करने वाला
सम्यक् कैसे हो सकता है?
जो मार्ग पर ही न हो
वह सम्यक् कैसे हो सकता है?
अतः श्रद्धा करो उस पंथ की
जो गाथा है भावलिंगी संत की
अब घर में खड़ी
दीवारों को गिरा दीजिए
गर हो, महावीर के अनुयायी
तो एक छत के नीचे आइए
और कहिए
अब विश्व में एक ही पंथ हो
“जिनागम पंथ जयवंत हो”।।
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