शांतिनाथ भक्ति का अतिशय
-भावलिंगी संत श्रमणाचार्य श्री विमर्शसागर जी महामुनिराज
संसारी जीव एक व्यापारी की तरह है, जो नित्य शुभ और अशुभ कर्म का संचय करता है, उनका फल भोगता है। अशुभ कर्म का फल दुःख है। शुभ कर्म का फल सुख। मोक्षमार्ग शुभाशुभ कर्म से मुक्त अतीन्द्रिय सुख का साधन है। मोक्षमार्गी साधक प्रधानतया अतीन्द्रिय सुख के मार्ग का आश्रय करते हैं। कदाचित् शुभमार्ग का आश्रय कर अशुभ कर्म की शान्ति का उपाय भी करते हैं, जिनधर्म की प्रभावना करते हैं। जैसे 48 कोठरी में बंद आचार्य मानतुंग स्वामी ने आदिनाथ स्तुति की और ताले स्वयमेव खुल गये। आचार्य वादिराज स्वामी ने जिनस्तुति की और कुष्ठ रोग तत्काल ठीक हो गया। आचार्य पूज्यपाद स्वामी ने शांति स्तुति की और नेत्र ज्योति आ गई। कवि धनंजय ने आदि स्तुति की और पुत्र का विष तत्काल शान्त हो गया, पुत्र मानो सोते से जाग गया, जिनधर्म की भी महाप्रभावना हुई।
सन् 25.12.2015 का दिन मैं कभी भूल नहीं सकता जब दोपहर सामायिक हेतु चतुर्दिक् कायोत्सर्ग कर मैं बैठने ही वाला था कि 15 दिन से अत्यन्त अस्वस्थ आँचल दीदी को संघस्थ दीदीयाँ व्हील चेयर से आशीर्वाद हेतु लाई। पैरालाइसिस जैसी शिकायत होने से पैर-हाथ से तो असमर्थता थी ही, आज आँखों से दिखना एवं कानों से सुनना भी बंद हो गया था। अत्यन्त दयनीय हालत में दीदी को देखकर हृदय करुणा से द्रवित हो उठा। मन ही मन भगवान् शांतिनाथ का स्मरण कर प्रभु से बोला- ‘हे नाथ! 22 वर्षीय असाध्य रोग से पीड़ित आँचल दीदी की अस्वस्थता आँखों से देखी नहीं जाती। प्रसिद्ध डॉक्टर्स भी स्पष्ट मना कर चुके हैं कि दीदी अब कभी स्वस्थ नहीं हो सकती। हमारे मेडिकल साइंस में यह प्रथम केस है कि दीदी की रिपोर्ट नॉर्मल है और अस्वस्थता बढ़ती जा रही है। हे प्रभो! अब तो एकमात्र आपकी भक्ति ही शरण है। सच्चा भक्त आपकी भक्ति के फल से जब पूर्ण निरामय अवस्था को प्राप्त कर सकता है, तो इस रोग से मुक्ति क्यों नहीं मिलेगी। मैं अत्यन्त करुणा से भरा हुआ आँचल दीदी से बोला- बेटा! मैं तुम्हें शांतिभक्ति सुना रहा हूँ, मेरी आज की यही सामायिक है, मैं भगवान् शांतिनाथ को हृदयकमल पर विराजमान करके आचार्य भगवन् पूज्यपाद स्वामी का भक्ति से स्मरण कर, पूज्य आचार्य गुरुदेव विरागसागर जी का आशीष अनुभव कर अत्यन्त तन्मयता के साथ शांतिभक्ति का उच्चारण करने लगा। अपूर्व विशुद्धि अनुभव हो रही थी, रोम-रोम भक्ति रस में सराबोर था। तभी अचानक आँचल दीदी की आँखों में नेत्र ज्योति आ गई, कानों से स्पष्ट सुनाई देने लगा, मुख का टेढ़ापन दूर हो गया और निश्चल हाथ की अंगुलियाँ स्वयमेव खुल गई, हाथ भी सहज चलने लगा। कमरे में जितने लोग थे, सभी जय जयकार करने लगे। शांतिभक्ति का अतिशय देख सभी रोमांचित हो गये। आँचल दीदी बोलीं- गुरुदेव! मेरा चेहरा पहले जैसा हो गया है। मैं पहले की तरह ही बोल रही हूँ न । मुझे पहले की तरह ही दिखाई एवं सुनाई भी दे रहा है। मैंने कहा बेटा! यह सब भगवान शांतिनाथ की कृपा है। आँचल दीदी बोलीं- गुरुदेव! अब तो मैं आहार का शोधन भी कर सकती हूँ. और हाथों से आहार दे भी सकती हूँ, तभी उनका ध्यान अपने संवेदना शून्य पैर पर गया, बोलीं गुरुदेव! यदि मेरा पैर भी ठीक हो जाता तो मैं आपको जल्दी आहार दे पाती। मैंने कहा- बेटा! भगवान शांतिनाथ की भक्ति से वह भी शीघ्र ठीक होगा। मैंने पुनः दीदी को शांतिभक्ति सुनाना शुरू किया, दीदी भी साथ पढ़ने लगीं। अहो! अद्भुत आनन्द रस बहने लगा प्रभु की भक्ति करते। तभी दीदी के पैर की अंगुलियाँ चलने लगीं और दीदी अपने पैरों पर खड़ी हो गई। व्हील चेयर को पीछे धकेल दिया और कमरे में ही चलने लगीं। अभी शांतिभक्ति पूर्ण नहीं हुई थी, अतः मैंने कहा बेटा! भक्ति कर लो। सभी ने भावपूर्वक शांतिभक्ति पूर्ण की। आँचल दीदी बोलीं- गुरुदेव! ऐसा लग रहा है मानो सोकर उठी हूँ। गुरुदेव! मैं तो बिल्कुल ठीक हो गई। मैंने कहा बेटा! शांतिभक्ति के प्रसाद से तुम ठीक हुई हो। दीदी बोलीं गुरुदेव सब आपकी ही कृपा है।
कमरे में दीदी के माता-पिता भी उपस्थित थे। यह भक्ति का चमत्कार देख उनकी आँखों से खुशी के आँसू ढुलक रहे थे। मैंने कहा – अब सभी लोग भगवान शांतिनाथ के पास चलेंगे। एक बार वहाँ भी शांतिभक्ति का पाठ करेंगे। दीदी ने कहा – अब मैं व्हील चेयर से नहीं, पैदल ही चलूँगी। अहो! दीदी को पैदल चलते देख उपस्थित सैकड़ों भक्त जन आश्चर्य करने लगे। हमने शांति जिनालय में पुनः शांतिभक्ति का पाठ किया और भगवान शांतिनाथ के चरणों का भावपूर्वक स्पर्श कर आँचल दीदी को एवं संघस्थ सभी साधुओं को आशीर्वाद दिया। फिर हम सभी प.पू. सूरिगच्छाचार्य गुरुदेव श्री विरागसागर जी के पास पहुँचे, वहाँ दीदी ने आचार्य वंदना की। पूज्य गुरुदेव ने मंगल आशीर्वाद दिया, और कहा- “आहारजी में घटी यह अतिशयकारी घटना यहाँ चिरकाल तक गुंजायमान होती रहेगी।”
सच, मैं बेहद रोमांचित और आनंदित हूँ। शांतिभक्ति का पाठ करते समय जो विशुद्धि और आनंद का अनुभव हुआ, वह शब्दों से व्यक्त नहीं किया जा सकता। भक्ति का यह अतिशय चमत्कार स्मृति पटल पर बार-बार आता ही रहता है। जिनेन्द्र भक्ति का माहात्म्य यही तो है-
विघ्नौधा प्रलयं यान्ति, शाकिनी भूत पन्नगाः। विषं निर्विषतां याति , स्तूयमाने जिनेश्वरे ।।
अर्थात् जिनेश्वर की स्तुति करने पर विघ्नों का समूह तथा शाकिनी, भूत, सर्प आदि की बाधाएँ क्षण भर में क्षय को प्राप्त हो जाती हैं और विष भी निर्विषता को प्राप्त होता है।
|| श्री शान्ति भक्ति ||
(आचार्य श्री पूज्यपाद स्वामी कृत)
(यही वो महान् अतिशयकारी शान्ति भक्ति है जो सिद्धक्षेत्र अहारजी में परम पूज्य गुरुदेव को अपनी निर्मल-साधना से सहज सिद्ध हुई थी पंचमकाल में दुर्लभतम इस महान सिद्धि से प्रेरित हो यक्षों द्वारा प. पूज्य गुरुदेव की गई थी महापूजा और नाम दिया गया था ‘भावलिंगी संत’ एवं ‘अहार जी के छोटे बाबा’)
न स्नेहाच्छरणं प्रयान्ति भगवन्! पादद्वय ते प्रजाः, हेतु-स्तत्र विचित्र दुःख निचयः संसार घोरार्णवः ।
अत्यन्त स्फुर दुग्र रश्मि निकर व्याकीर्ण भूमण्डलो, ग्रैष्मः कारयतीन्दु पाद सलिल-च्छायानुरागं रविः।।1।।
(प्रणाम करने का ऐहिक फल)
क्रुद्धाशीविष दष्ट दुर्जय विष ज्वालावली विक्रमो, विद्या भेषज मन्त्र तोय हवनै र्याति प्रशान्तिं यथा ।
तद् वत्ते चरणारुणाम्बुज युगस्तोत्रोन्मुखानां नृणाम्, विघ्ना: कायविनायकाश्च सहसा शाम्यन्त्यहो विस्मयः ।।2।।
( प्रणाम करने का फल )
सन्तप्तोत्तम कांचन क्षितिधर श्री स्पद्धि गौर, पुंसां त्वच्चरणप्रणाम करणात् पीड़ाः प्रयान्तिक्षयं।
उद्यद्भास्कर विस्फुरत्कर शतव्याघात निष्कासिता, नाना देहि विलोचन-द्युतिहरा शीघ्रं यथा शर्वरी ॥ 3 ॥
(मुक्ति का कारण जिनस्तुति)
त्रैलोक्येश्वर भंग लब्ध विजयादत्यन्त रौद्रात्मकान्, नाना जन्म शतान्तरेषु पुरतो जीवस्य संसारिणः ।
को वा प्रस्खलतीह केन विधिना कालोग दावानलान्, न स्याच्चेत्तव पाद-पद्म युगल स्तुत्यापगा वारणम् ॥4॥
(स्तुति से असाध्य रोगों का नाश)
लोकालोक निरन्तर प्रवितत् ज्ञानैक मूर्ते विभो, नाना रत्न पिनद्ध दण्ड रुचिर श्वेतातपत्रत्रय।
त्वत्पाद-द्वय पूत गीत रवतः शीघ्रं द्रवन्त्यामया, दपध्मात मृगेन्द्रभीम निनदाद् वन्या यथा कुञ्जराः।।5।।
(स्तुति से अनन्त सुख)
दिव्य स्त्री नयनाभिराम विपुल श्री मेरु चूडामणे, भास्वद् बाल दिवाकर-द्युतिहर प्राणीष्ट भामण्डल।
अव्याबाध मचिन्त्यसार मतुलं त्यक्तोपमं शाश्वतम्, सौख्यं त्वच्चरणारविन्द युगल स्तुत्यैव सम्प्राप्यते।।6।।
(भगवान् के चरण-कमल प्रसाद से पापों का नाश)
यावन्नोदयते प्रभा परिकरः श्रीभास्करो भासयंस, तावद् धारयतीह पंकज वनं निद्रातिभार श्रमम् ।
यावत्त्वच्चरण द्वयस्य भगवन्! न स्यात् प्रसादोदयस् तावज्जीव निकाय एष वहति प्रायेण पापं महत् ।।7।।
(स्तुति फल याचना)
शान्तिं शान्ति जिनेन्द्र शान्त मनसस् त्वत्पाद पद्माश्रयात्, संप्राप्ताः पृथ्वी तलेषु बहवःशान्त्यर्थिनः प्राणिनः ।
कारुण्यान् मम भाक्तिकस्य च विभो! दृष्टिं प्रसन्नां कुरु, त्वत्पादद्वय दैवतस्य गदतः शान्त्यष्टकं भक्तितः।।8।।
शान्ति जिनं शशि निर्मल वक्त्रं, शीलगुण व्रत संयम पात्रम् ।
अष्टशतार्चित लक्षण गात्रं, नौमि जिनोत्तम मम्बुज नेत्रम् ॥१॥
पञ्चम मीप्सित-चक्रधराणां, पूजित मिन्द्र – नरेन्द्र – गणैश्च ।
शान्तिकरं गण-शान्ति मभीप्सुः,-षोडश तीर्थकरं प्रणमामि ।।10।।
दिव्यतरु: सुर पुष्प-सुवृष्टि-दुन्दुभिरासन – योजन घोषौ ।
आतप वारण चामर युग्मे, – यस्य विभाति च मण्डलतेजः ॥11॥
तं जगदचिंत शान्ति – जिनेन्द्रं शान्तिकर शिरसा प्रणमामि।
सर्व गणाय तु यच्छतु शान्ति, महामरं पठते परमां च ||12||
येऽभ्यचिंता मुकुट-कुण्डल-हार-रलै, शक्रादिभिः सुरगणे: स्तुत-पादपद्माः।
ते मे जिनाः प्रवर वंश-जगत्प्रदीपा:, तीर्थकरा: सतत शान्तिकरा भवन्तु ।।13।।
सम्पूजकानां प्रतिपालकानां, यतीन्द्र – सामान्य – तपोधनानाम्।
देशस्य राष्ट्रस्य पुरस्य राज्ञः, करोतु शान्तिं भगवान्-जिनेन्द्रः।।14।।
क्षेमं सर्वप्रजानां प्रभवतु बलवान् धार्मिको भूमिपाल:, काले काले च सम्यग् वितरतु मघवा, व्याधयो यान्तु नाशम्।
दुर्भिक्षं चौरिमारिः क्षणमपि जगतां, मास्मभूज्जीव-लोके, जैनेन्द्रं धर्मचक्रं प्रभवतु सततं, सर्व-सौख्य-प्रदायि।।15।।
तद् द्रव्यमव्ययमुदेतु शुभः स देशः, संतन्यतां भाव: प्रपत सततं सकालः ।
नन्दतु सदा यदनुग्रहेण, रत्नत्रयं प्रपतीह मुमुक्षुवर्गे।।16।।
स प्रध्वस्त घाति कर्माण:, केवलज्ञान भास्कराः ।
कुर्वन्तु जगतां शान्तिं, वृषभाद्या जिनेश्वराः ।।17।।
(क्षेपक श्लोकानि)
शांति शिरोधृत जिनेश्वर शासनानां, शान्तिः निरन्तर तपोभव भावितानां ।
शान्तिः कषाय जय जृम्भित वैभवानां, शान्तिः स्वभाव महिमानमुपागतानाम्।।1।।
जीवन्तु संयम दं शुद्ध सुधारस पान तृप्ता, सहसोदय सुप्रसन्नाः ।
सिद्धयंतु सिद्धि सुख संग कृताभियोगाः, तीव्रं तपन्तु जगतां त्रितयेऽर्हदाज्ञा ॥2॥
शान्तिः शंतनुतां समस्त जगत: संगच्छतां धार्मिकैः, श्रेयः श्री परिवर्धतां नयधरा, धुर्यो धरित्री पतिः ।
सद्विद्या-रसमुगिरन्तु कवयो, नामाप्य धस्यास्तु मां, प्रार्थ्यं वा कियदेक एव, शिवकृद्धर्मो जयत्वर्हताम्।।3।।
इच्छामि भंते। संतिभत्ति-काउसग्गो कओ, तस्सालोचेउं, पञ्च महा-कल्लाण-संपण्णाणं, अट्ठमहापाडिहेर सहियाणं, चउतीसातिसय विसेस संजुत्ताणं, बत्तीस देवेंद-मणिमय मउड मत्थय महियाणं बलदेव वासुदेव चक्कहर रिसि-मुणि-जदि-अणगारोव गूढाणं, थुइ सय सहस्स-णिलयाणं, उसहाइ वीर पच्छिम मंगलमहापुरिसाणं सया णिच्चकालं, अच्चेमि, पूजेमि, वंदामि, णमस्सामि, दुक्खक्खओ, कम्मक्खओ, बोहिलाओ, सुगइगमणं, समाहि-मरणं जिण-गुण संपत्ति होउ मज्झं।
(इति श्री शांतिभक्ति)