बहुचर्चित 'जीवन है पानी की बूँद' (महाकाव्य)
का उद्भव मूल रचयिता की कलम से....................
बात 1997 भिण्ड चातुर्मास की है सूरज गुनगुनी धूप लेकर क्षितिज पर चमकने लगा। परम पूज्य गुरुदेव आचार्य श्री विरागसागर जी महाराज अपने विशाल संघ के साथ प्रभातकालीन आवश्यक भक्ति क्रिया से निवृत्त हो चुके थे। प्रतिदिन की भांति परम पूज्य गुरुदेव अपने विशाल संघ के साथ नित्य क्रिया हेतु नसियाँ जी की ओर बढ़ते जा रहे थे।
पूज्य गुरुदेव के साथ में भी यथाक्रम ईयसमिति से चल रहा था, और काव्य में रुचि होने के कारण चिंतन को आध्यात्मिक अनुभूतियों से स्नान करा रहा था। तभी अचानक चिंतन की गर्भस्थली में एक पंक्ति ‘जीवन है पानी की बूँद, कब मिट जाये रे’ का प्रसव हुआ और में इस प्रसव की परमानंद अनुभूति का बारम्बार अनुभव करता हुआ स्मृति के दिव्य द्वार तक पहुंच गया। मैंने कभी ‘होनी-अनहोनी’ सीरियल देखा था, अतः होनी-अनहोनी शब्द को अपने काव्य में स्थान देने का विचार करता था, तभी अचानक नित्य क्रिया से लौटते समय चिंतन की गर्भस्थली से जुड़वाँ पंक्ति ‘होनी अनहोनी, हो हो, कब क्या घट जाये रे’ का प्रसव हुआ। में दोनों जुड़वाँ पंक्तियों का अनुभव करता हुआ, अंतरंग में गुरु आशीष की श्रद्धा से भर गया। अतः इस आध्यात्मिक भजन को पूर्ण करने में उपयोग लगाया। भजन की पूर्णता होते ही मैं पूज्य गुरुदेव के श्री चरणों में पहुंचा और विनयपूर्वक अपना चिंतन मधुर स्वर में गुरु चरणों में समर्पित किया। सच कहूँ, गुरुदेव ने अत्यंत आहूलाद से भरकर मुझे शुभाशीष दिया। गुरु का वह मंगल आशीष ही है कि इस आध्यात्मिक भजन ने सभी के कंठ को स्पर्शित किया, और इस समय का बहुचर्चित भजन कहलाया। जैन हो या अजैन सभी ने इसे समभाव से स्वीकारा, और मुझे अत्यंत श्रद्धा और प्यार से ‘जीवन है पानी की बूँद चिंतन के प्रणेता, इस नाम से पुकारने लगे।
यद्यपि इस भजन को जब अन्य साधु, विद्वान, गीतकार, गायक, अपनी प्रशंसा के लिए अपनी रचना कहकर बोलने लगे, तब परम पूज्य गुरुदेव आचार्य श्री विरागसागर जी महाराज को यह कहना पड़ा, कि, ” जीवन है पानी की बूँद भजन तो ‘विमर्शसागर जी’ की मूल गाथाएँ है जिस पर अन्य साधु, विद्वान, गायक तो मात्र टीकायें लिख रहे हैं।”
जीवन है पानी की बूँद (महाकाव्य)
मूल रचयिता श्रमणाचार्य श्री विमर्शसागर जी महाराज
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जीवन है पानी की बूँद कब मिट जाये रे-ऽऽ
होनी-अनहोनी, हो-हो-2-कब क्या घट जाये रे -ऽऽ
साथ निभायेगा बेटा, सोच रहा लेटा-लेटा।
हाय बुढ़ापा आयेगा पास न आयेगा बेटा।
ख्वाबों में तू क्यों, हो-हो-2 आनन्द मनाये रे-ऽऽ
अर्द्धमृतक समवृद्धापन, झुकी कमर सिकुड़न-सिकुड़न|
गोदी में पोता-पोती, खोज रहा बचपन यौवन|
बीते जीवन के, हो-हो-2 तू गीत सुनाये रे-ऽऽ
हाथों में लकड़ी थामी, चाल हो गई मस्तानी।
यम के घर खुद जाने की, जैसे मन में हो ठानी।
बेटा बहु सोचें, हो हो-2 डोकरो कब मर जाये रे-ऽऽ
चारपाई पर लेटा है, पास न बेटी-बेटा है।
चिल्लाता है पानी दो, कोई न पानी देता है।
भूखा प्यासा ही, हो-हो-2 इक दिन मर जाये रे-ऽऽ
जीवन बीता अरघट में, पुण्य पाप की करवट में।
चढ़कर अर्थी पर जाये, अन्त समय भी मरघट में।
तेरा ही बेटा, हो-हो-2 तेरा कफन सजाये रे-ऽऽ
सिर पर जिसे बिठाया है, गोदी में भी खिलाया है।
लाड़ प्यार से पाला है, सुख की नींद सुलाया है।
तेरा ही बेटा, हो-हो-2 तुझे आग लगाये रे-ऽऽ
जिसके लिए कमाता है, जीवन साथी बताता है।
जिसकी चिन्ता कर करके, अपना चैन गवाता है।
देहरी से बाहर, हो-हो-2 वो साथ न जाये रे-ऽऽ
जीवन है पानी की बूँद कब मिट जाये रे-ऽऽ
होनी-अनहोनी, हो-हो-2-कब क्या घट जाये रे -ऽऽ
परम पूज्य गुरुवर की अमर रचना ‘जीवन है पानी की बूँद ( महाकाव्य )’ में अभी तक 5000 से अधिक छंद पूज्य गुरुदेव के द्वारा रचे जा चुके हैं| इस कालजयी रचना में प्रतिदिन एक नवीन छंद प्रवचनों से पूर्व प. पू. गुरुदेव के द्वारा रचा जाता है, तत्पश्चात उसी छंद पर पू. गुरुदेव का मांगलिक प्रवचन हुआ करता है|