मंदिल क्यों जाते हैं?
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प्रसंग तब का है जब, गोरे चिट्टे बल्लु भैया (प. पूज्य गुरुदेव) चार वर्ष के हो गए। कभी दादी के साथ तो कभी मम्मी के साथ मंदिर जाने आने लगे। एक मायने में घर की दो सदस्याएँ उनमें संस्कारों का वपन कर रही थीं।
एक दिन बल्लु भैया अकेले ही मंदिर चले गए फलतः मम्मी और दादी ही नहीं सनतकुमार भी प्रसन्न हुए। जब बल्लु मंदिर से लौटे तो मम्मीजी ने एक दो सवाल किए मेरे बल्लु ने आज मंदिर में क्या-क्या किया था ?
तब बल्लु अपनी किंचित् तोतली किंतु अत्यंत मीठी आवाज में बोले- “मंदिल में पूजन किया था।”
माँ ने उसके सिर पर हाथ फेरा, गालों को दुलराया, फिर पूछा-“कौन सी पूजा की थी बेटे ?”
बल्लु पहले कुछ सोचने लगे फिर जो पंक्तियाँ मंदिर में सुनी थीं, उन्हें दोहरा कर बोले-”जय-जय नाथ पलम गुरु होय”।
माँ उनकी मीठी आवाज पर रीझ गई। तुरंत गले से लगा लिया। फिर बोली- “तुम तो पक्के श्रावक बन गए। अब रोज मंदिर जाया करना।”
बल्लु ने स्वीकृति तो दे दी, किंतु एक प्रश्न भी रख दिया मंदिल जाने से क्या होता है?
माँ- “बेटे ! श्री जी की वैराग्यवर्धक शांत मुद्रा देखने से मन को शांति मिलती है।”
– “पल, माँ भगवान तो कुछ बोलते ही नहीं, फिल क्या फायदा ?”
– “वे वीतरागी हैं, किसी से कुछ बोलते नहीं, कुछ लेते देते नहीं, इसलिए उनके दर्शनों से पापों का क्षय होता है।”
– “मगल वहाँ तो मूल्ति (मूर्ति) भर है, भगवान कहाँ हैं?”
– “बेटे, वही मूर्ति तो भगवान हैं, जिन्हें ज्ञान है, वे जानते हैं कि भगवान का निवास हर हृदय में होता है।”
वाक्य सुनकर बल्लु भैया बहुत हँसे, फिर अपनी चतुराई बतलाते हुए पूछ बैठे- ”जब भगवान सबके मन में हैं, तो मंदिल क्यों जाते हैं?”
प्रश्न सुनकर माता परेशान हो गई। झुंझलाहट को छुपाते हुए बोली- कितने प्रश्न करने लगा है, सीधी सी बात है कि मंदिर में भगवान के दर्शन करने से भक्तों को अपने हृदय में विराजित भगवान का बोध हो जाता है।
बल्लु कोई नया प्रश्न पूछे, उसके पहले मम्मी जी ने वहाँ से नौ-दो-ग्यारह होना ही उचित समझा।
सच ही है, जो बड़ा होकर जिन दर्शन के माहात्म को जन-जन तक प्रचारित करने वाला हो, उसके ही कोमल बाल मन में ऐसे प्रश्न जन्म ले सकते हैं।