वैदिक साहित्य में जैन-संस्कृति
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वैदिक साहित्य वेद, पुराण और स्मृतियों में जैन तीर्थंकरों के सन्दर्भ में विपुल सामग्री उपलब्ध है। उसमें से कुछेक तथ्यों का केवल जैन धर्म की प्राचीनता दिखाने के लिए यहाँ संकलन किया गया है।
ऋग्वेद में ऋषभदेव को ज्ञान का भण्डार और कर्म शत्रुओं का विध्वंसक बताते हुए लिखा है-
असूतपूर्वी वृषभो ज्यायानिमा, अस्य शुरुधः सन्ति पूर्वीः।
दिवो न पाता विदर्थस्यधीभिः क्षत्रं राजाना प्रतिवर्वोदधाथे ॥ -3/38/5
अर्थात् जिस प्रकार जल से भरा हुआ मेघ वर्षा का मुख्य स्रोत है और पृथ्वी की प्यास बुझा देता है उसी प्रकार पूर्वी अर्थात् ज्ञान को प्रतिपादक वृषभ महान् हैं, उनका शासन वर दे। उनके शासन में ऋषि परम्परा से प्राप्त पूर्व का ज्ञान है- आत्मा के क्रोधादि शत्रुओं का विध्वंसक हो। दोनों (संसारी और सिद्ध) आत्माएँ अपने ही आत्मगुणों से चमकती है। अतः वही राजा हैं, वे पूर्व ज्ञान के आगार हैं और आत्म पतन नहीं होने देते।
भगवान् ऋषभदेव का प्रमुख सिद्धान्त था- आत्मा में परमात्मा का अधिष्ठान है। उसे प्राप्त करने का उपाय करो। इसी सिद्धान्त की पुष्टि करते हुए ऋग्वेद (3/58/3) में उनका नामोल्लेख करते हुए कहा है-
त्रिधावद्धो वृषभो रोरवीति महादेवी मर्त्या अविवेश ।
अर्थात् मन, वचन काय से बद्ध (संयमित) ऋषभदेव ने घोषणा की महादेव मर्यों में निवास करता है। उन्होंने अपनी साधना और तपस्या के द्वारा उक्त बात को प्रमाणित भी कर दिखाया, ऐसा भी उल्लेख है-
तनमर्त्यस्य देवत्वभजानमग्रे । (ऋग्वेद 39/17)
ऋषभ स्वयं आदि पुरुष थे। जिन्होंने सबसे पहले मर्त्यदशा में देवत्व प्राप्त किया था।
यह विदित ही है कि तपो साधना से उत्पन्न हुई केवल ज्ञानावस्था में तीर्थंकरों को परमदेव कहा जाता है। अतः उपरोक्त वेद की ऋचा में उन्होंने मनुष्य तन में ही देवत्व प्राप्त कर लिया था ऐसा कहा गया है, जो ठीक है।
ऋग्वेद की एक ऋचा में ऋषभदेव को सर्वोत्कृष्ट और कर्म शत्रुओं का नाशक बताते हुए कहा है-
ऋषभंमासमानानांसपत्नानांविषासहिम् ।
हंतारंशत्रूणांकृधिविराजंगोपतिंगवोम् ।। 10/166/1
वृषभदेव का सामवेद में उल्लेख करते हुए लिखा है-
अप्पां यदि मेपवमान, रोदसी इमा च विश्वा भुवनानि मन्मना यूथेन निष्ठा वृषभो विराजसि ॥ अ(अ)/सं. ॥
पुरातन साहित्य ऋग्वेद में जो वातरशना मुनियों और श्रमणों की साधना का उल्लेख आया है, वह जैन मुनियों से सम्बन्धित ही है। यथा-
मुनयो वातंरशनाः पिशंगा वसते मला।
वातस्यानुधाजिं यन्ति यद्देवासो अविक्षत।।
उन्मंदिता मौनेयेन वातां आ तस्थिमा वयम् ।
शरीरेदस्माकें यूयं मर्तासो अभि पश्यथ ॥ (10/136/2-3)
अर्थात् अतीन्द्रियार्थदर्शी वातरशना मुनि मलिन तन है जिससे वे पिंगल वर्ण दिखाई पड़ते हैं। जब वायु की गति को प्राणोपसना द्वारा धारण कर लेते हैं अर्थात् रोक देते हैं, तब वे अपने तप की महिमा से दीप्तिमान होकर देवता स्वरूप को प्राप्त हो जाते हैं। सार्वलौकिक व्यवहार को छोड़कर वे मौनेय की अनुभूति में कहते हैं- “मुनिभाव से प्रमुदित होकर हम वायुभाव में स्थित हो गये। मर्यो। तुम हमारा बाह्य शरीर मात्र देखते हो, हमारे आभ्यन्तरशरीर को नहीं देख पाते।” यह वर्णन निश्चित ही किसी वैदिकेतर तपस्वी का है और वे तपस्वी ऋषभदेव या अन्य कोई तीर्थंकर ही होंगे, क्योंकि वेदों की ऋचाओं/मन्त्रों में अनेक स्थानों पर तीर्थंकर ऋषभ, तीर्थंकर अजित, तीर्थंकर नमि, तीर्थंकर नेमिनाथ (अरिष्टनेमि) और तीर्थंकर महावीर का उल्लेख प्राप्त होता है।
तैत्तरीयारण्यक में इन्हीं वातरशना मुनियों को ‘श्रमण’ और ‘उर्ध्वमंथी’ कहा है। साथ ही उसमें ऋषभदेव का भी उल्लेख है-
वातरशना हवा ऋषभाः श्रमणा उर्ध्वमंथिनो बभुवुः (2/7/1)
श्रीमद्भागवत में श्रमणों की प्रशंसा करते हुए कहा गया है कि जो वातरशना ऊर्ध्वमंथी श्रमण मुनि हैं, वे शान्त, निर्मल, सम्पूर्ण परिग्रह से सन्यस्त ब्रह्मपद को प्राप्त करते हैं। वातरशना मुनियों का सम्बन्ध दिगम्बर श्रमणों से ही है, इसलिये निघंटु की भूषण टीका में श्रमण शब्द की व्याख्या इन शब्दों में की गई है-
श्रमणाः दिगम्बराः, श्रमणाः वातरशना।
इसी बात का समर्थन भागवत (11/2) से भी प्राप्त होता है। यथा-
श्रमणाः वातरशना आत्म-विधा विशारदा।
श्रमण दिगम्बर मुनि का ही नामान्तर है और इस कारिका में उन्हें आत्म- विधा विशारद अर्थात् आत्मज्ञानी कहा है।
जिनसहस्रनाम में भगवान् ऋषभदेव की स्तुति करते हुए आचार्य जिनसेन ने भी वातरशना शब्द का अर्थ निर्ग्रन्थ, निरंबर और दिगम्बर किया है अथवा ऋषभदेव का एक नाम ही वातरशना कहा है-
दिग्वासा वातरशनो निर्ग्रन्थेशो निरंबरः । (10/1)
ऋग्वेद में केशी की भी स्तुति प्राप्त होती है। यह केशी साधना युक्त होते
हैं। यथा-
केश्यैग्निं केशी विषं केशी बिभति रोदसी।
केशी विश्वं स्वर्दृशे केशीदं ज्योतिरुच्यते । (ऋग्वेद 10/136/1)
अर्थात् केशी अग्नि, जल, स्वर्ग और पृथ्वी को धारण करता है। केशी समस्त विश्व के तत्त्वों का दर्शन कराता है। उसकी ज्ञान ज्योति केवलज्ञान रूप है।
ऋग्वेद के केशी और वातरशना मुनियों की साधनों का भागवत पुराण में उल्लिखित ऋषभ की साधनाओं के साथ तुलनात्मक अध्ययन करने पर यह निष्कर्ष निकलता है कि ऋग्वेद के वातरशना मुनि और भागवत के वातरशना मुनि और भागवत के वातरशना श्रमण एक ही सम्प्रदाय के वाचक हैं, जो कि प्राग्वैदिक है। केशी का अर्थ केशधारी है, सम्भवतः ये वातरशना मुनियों के अधिनायक थे। इनकी साधना में शरीर पर मलधारण, मौनव्रत और उन्मादभाव आत्मध्यान का विशेष उल्लेख है। श्रीमद्भागवत (5/5/28/3-1) में ऋषभदेव की जिस वृत्ति का वर्णन है, उससे स्पष्ट है कि वे केशधारी योगी के रूप में विचरण करते थे।
जैन मूर्तिकला में ऋषभदेव के कुटिल केशों की परम्परा प्राचीनतम काल से पायी जाती है। चौबीस तीर्थंकरों में से केवल ऋषभदेव की मूर्ति के सिर पर ही कुटिल केश दिखाई पड़ते हैं और वही उसका प्राचीन विशेष लक्षण भी माना जाता है। पद्मपुराण (3/288) का उल्लेख किया है। हरिवंशपुराण (9/204) में भी उन्हें प्रलबम्ब जटाधारी कहा है। प्राचीनतम जैन सिद्धान्त ग्रन्थ तिलोयपण्णत्ति में भी आदि जिन की प्रतिमा को जटामुकुट-धारी कहा है।
अतः ऋषभदेव का केशी यह नाम सार्थक सिद्ध होता है। ऋग्वेद की एक ऋचा में केशी और ऋषभ इन दोनों शब्दों का साथ-साथ उल्लेख है। इस ऋचा में केशी पर ऋषभ का विशेषण जैसा मालूम पड़ता है। यथा-
ककर्दवे वृषभो युक्त आंसीदांवचीत् सारंथिरस्य केशी।
दर्धेर्युक्तस्य द्रवंतः सहान॑सः ऋच्छन्तिष्मानिष्पदोंमुद्गलानीम् ॥ (ऋग्वेद 10/102/6)
अर्थात् मौद्रङ्गलिक ऋषि की गायों को चोर चुरा ले गये थे, उन्हें लौटाने के लिये ऋषि ने वृषभ को अपना सारथी बनाया, जिसके वचन मात्र से वे गायें आगे की ओर न जाकर पीछे को लौट पड़ी।
सारण ने केशी को ऋषभ का विशेषण बताया है-
अस्य सारथि सहायभूः केशी प्रकृष्टकेशो वृषभः अवरावचीत भृशमाब्दयत् ।
अर्थात् मुद्गल ऋषि ने केशी वृषभ को शत्रुओं का विनाश करने के लिये अपना सारथी नियुक्त किया। इस ऋचा का आध्यात्मिक अर्थ यह है कि मुद्गल ऋषि की जो इन्द्रियाँ पराङ्मुख थीं, वे उनके योगयुक्त ज्ञानी वेग केशी वृषभ का उपदेश सुनकर अन्तर्मुखी हो गयीं। अतएव यह स्पष्ट है कि ऋग्वेद में जो केशी शब्द आया है, वह ऋषभदेव के उल्लेख का ही सूचक है, उनका उपनाम है।
इसी प्रकार ऋग्वेद में अनेक स्थलों पर अर्हत्, यति और व्रात्यों का उल्लेख आया है। विद्वानों के अनुसार उनका सम्बन्ध भी जैन संस्कृति से ही है। डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन् ने इंडियन फिलोसफी में स्पष्ट लिखा है- ऋग्वेद आदि में जिन वृषभ नामक महापुरुष का उल्लेख मिलता है, विद्वज्जन उनको प्रथम जैन तीर्थंकर ऋषभदेव ही मानते हैं।
ऋग्वेद के खोजपूर्ण अध्ययन के आधार पर डॉ. सागरमल जैन ने ‘ऋग्वेद में अर्हत् और ऋषभवाची ऋचाएँ’ नामक अपने लेख में लिखा है-
ऋग्वेद में न केवल सामान्य रूप से श्रमण परम्परा और विशेष रूप से जैन परम्परा से सम्बद्ध अर्हत्, अर्हन्, व्रात्य, वातरशना, मुनि, श्रमण आदि शब्दों का उल्लेख मिलता है, अपितु उसमें अर्हत् परम्परा के उपास्य देवता वृषभ का भी उल्लेख शताधिक बार मिलता है। मुझे ऋग्वेद में वृषभवाची 112 ऋचाएँ प्राप्त हुई हैं। सम्भवतः कुछ और भी ऋचाएँ मिल सकती हैं। यद्यपि यह कहना कठिन है कि इन समस्त ऋचाओं में प्रयुक्त वृषभ शब्द ऋषभदेव का ही वाची है, फिर भी कुछ ऋचाएँ तो अवश्य ही ऋषभदेव से सम्बद्ध मानी जा सकती हैं। डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन, प्रो. जिम्मर, प्रो. विरूपाक्ष वार्डियार आदि कुछ जैनतर विद्वान् भी इस मत के प्रतिपादक हैं कि ऋग्वेद में जैनों के आदि तीर्थंकर ऋषभदेव से सम्बद्ध निर्देश उपलब्ध होते हैं।
(त्रैमासिक पत्र श्रमण, अप्रैल-जून, 1994)
डॉ. गोकुलदास जैन के अनुसार ऋग्वेद की 141 ऋचाओं में ऋषभदेव का स्तुतिपरक उल्लेख एवं उत्कीर्तन हुआ है, जिनमें ऋषभदेव को पूर्व ज्ञान का प्रतिपादक और दुःखों का नाशक कहा है। (णाणसायर, ऋषभ अंक, पृ. 21)
भगवान् ऋषभदेव को सम्पूर्ण पृथ्वी का सार और भूषण बताते हुए ऋग्वेद (30/3/1) में लिखा है-
आदित्या त्वगसि आदित्या आसीद् अस्त म्रादध्वां वृषभोतरिक्षं जमिमीते वरिमाणं। पृथिव्यां आसीद् विश्व भुवनालि सम्रादिश्वे तानि करुणस्व वृतानि ।
अर्थात् तुम अखण्ड पृथ्वी मण्डल के सार त्वचा स्वरूप हो, पृथ्वी के आभूषण हो, दिव्य ज्ञान द्वारा आकाश को नापते हो, ऐसे हे वृषभनाथ सम्राट इस संसार में जगरक्षक व्रतों का प्रचार करो।
ऋग्वेद के अलावा यजुर्वेद, अथर्ववेद और सामवेद में ऋषभदेव का अनेक स्थानों पर उल्लेख मिलता है।
अठारहवीं सदी के विद्वान् पण्डित टोडरमलजी ने अपने ‘मोक्षमार्ग प्रकाशक’ (पृ. 208) में बताया है कि प्रथम तीर्थंकर ऋषभ, द्वितीय अजित, सप्तम सुपार्श्व, बाईसवें अरिष्टनेमि और चौबीसवें महावीर का उल्लेख यजुर्वेद के कई स्थानों पर आया है। उन्होंने यजुर्वेद का निम्नलिखित मन्त्र उद्धृत किया है-
‘ओं ऋषभपवित्रं पुरुहूमध्वरं यज्ञेसु नग्नं परमाह संस्तुतं वरं शत्रुजयंतं पशुरिन्द्रमाहुरिति स्वाहा। ओं ज्ञातारमिन्द्रं ऋषभं वदन्ति। अमृतारमिन्द्रं हवां सुगतं सुपार्श्वमिन्द्रं हवे शक्रमजितं तद्वर्द्धमानपुरुहूतमाहुरिति स्वाहा। ओं नग्नं सुधीरं दूवाससं ब्रह्मगर्भ सनातन उपैमि वीरं पुरुषहान्तमादित्यवर्ण तमसः परस्तात् स्वाहा। ओं स्वस्ति नः इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः, स्वस्ति नस्ताक्ष्यो अरिष्टनेमिः, स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु। दीर्घायुस्वायुर्बलायुर्वा, शुभजातायुः ओं रक्ष रक्ष अरिष्टनेमिः स्वाहा।’
आरण्यकों में ऋषभदेव, नेमिनाथ, सुपार्श्वनाथ, अजितनाथ और वर्द्धमान तीर्थंकरों का वर्णन कुछ मंत्रों में इस प्रकार आया है-
‘ज्ञातारमिन्द्रं ऋषभंवदन्ति, अमृतारमिन्द्रं तमरिष्टनेमि। भवे भवे सुपार्श्वमिन्द्रं हवे तु शक्रं अजितं जिनेन्द्रं, तवर्द्धमानं पुरुहूत मिन्द्रं स्वाहा। नमं सुवीरं दिग्वाससं, ब्रह्मगर्भ सनातनम्। दधातु दीर्घायु स्तवाय बलाय वर्चसे सु प्रजास्त्वाय रक्ष रक्ष अरिष्टनेमिः स्वाहा।’ (वृहदारण्यक)
श्रीमद्भागवत में वर्णित ऋषभदेव
श्रीमद्भागवत के प्रथम स्कन्ध के अध्याय तीन में विष्णु के अवतारों का कथन करते हुए बताया गया है- “राजा नाभि की पत्नी मरुदेवी के गर्भ से ऋषभदेव के रूप में भगवान् ने आठवाँ अवतार प्राप्त किया। इस सम्बन्ध में उन्होंने परमहंसों (मुनियों) को वह मार्ग दिखाया जो सभी आश्रमवासियों (गृहस्थों) के लिये वन्दनीय है।”
अष्टमे मेरुदेव्यां तु नाभेर्जात उरुक्रमः ।।
दर्शयन्वर्त्म धीरणां सर्वाश्रमनमस्कृतम् ॥ (1/3/13)
इस ग्रन्थ में ऋषभदेव के जीवन सन्दर्भ के भी उल्लेख मिलते हैं-
अथ ह भगवानृषभदेवः स्ववर्ष कर्मक्षेत्रमनुमन्यमानः प्रदर्शितगुरुकुलवासः लब्धवरैर्गुभिरनुज्ञातो गृहमेधिनां धर्माननुशिक्षमाणो….शतं जनयामास । (54/8), भगवानृषसंज्ञ आत्मंत्रः स्वयं नित्यनिवृत्तार्थपरम्परः केवलानन्दानुभव ईश्वर एव विपरीतवत्कर्माण्यारभमाणः कालेनानुतं धर्माचरणेनोशिक्षयन्नतद्विदां सम उपशशन्तों मैत्रः कारुणिको धर्मार्थयशः प्रजानन्दामृतावरोधेन गृहेषु लोकं तियमयत्। (5/4/14)
अर्थात् भगवान् ऋषभदेव ने समस्त लौकिक क्रियाओं का सम्पादन किया। वे परम स्वतन्त्र भौतिक आशक्ति से रहित, आनन्दस्वरूप साक्षात् ईश्वर थे। उन्होंने जनसामान्य में धर्माचरण और तत्त्वज्ञान का प्रचार किया। समता, शान्ति और करुणा से साथ धर्म, अर्थ, यश, सन्तानसुख, भोग और मोक्ष का उपदेश देते हुए गृहस्थाश्रम में लोगों को नियमित जीवन व्यतीत करने का उपदेश दिया। ऋषभदेव समस्त धर्मों के सार रूप, वेद के गुह्य रहस्य के ज्ञाता थे। वे सामदामादि रीति के अनुसार जनता का पालन करते थे। उन्होंने सौ यज्ञों का सम्पादन किया था। इनके शासन काल में प्रजा सुखी थी, उसे किसी भी वस्तु की कमी नहीं थी। ऋषभदेव ने अनेक देशों में विहार किया था तथा देश, राष्ट्र और समाज हित का उपदेश दिया था।
इसी ग्रन्थ में ऋषभदेव के उपदेश से प्रकट हुए सम्प्रदाय के सन्दर्भ में कहा है –
‘येन ह वाव कलौ मनुजापसदा देवमायामोहिताः……… निजनिजेच्छया गृहूणाना अस्नानानाचमनाशौचके शलोल्लुअचनादीनि कलिनाधम- बहुलेनापहतिधियो ब्रह्मब्रह्मण-यज्ञपुरुषलोकविदूषकाः प्रार्थेण भविष्यन्ति ।’ (श्रीमद्भागवत स्क. 5, अ. 6, श्लो. 10)
अर्थात् ऋषभदेव की शिक्षा को ग्रहण कर ऐसे धर्म और सम्प्रदाय प्रचलित होंगे, जो अस्नान, अनाचमन, अशौच, केशलुंचन, ईश्वर कर्तृत्व में अविश्वास, यज्ञ-विरोध आदि करेंगे।
ऋषभदेव का ही एक नाम आदिनाथ है। महाभारत के ‘शान्तिपर्व’ में एक जगह ऋषभदेव को महायोगी, अर्हत् कहा है-
‘ऋषभादि महायोगी नामाचारे। इष्टाय अर्हतारयो मोहिता ।।’
पुराणों में प्रतिपादित ऋषभदेव :
प्रसिद्ध हिन्दू ग्रन्थ नागपुराण में ऋषभदेव के दर्शनों का फल बताते हुए लिखा है-
अष्टषष्टिषु तीर्थेषु यात्रायां यत्फलं भवेत्।
श्री आदिनाथस्य देवस्य सस्मरणेनापि तद्भवेत् ॥
अर्थात् अड़सठ तीर्थों की यात्रा करने से जो फल प्राप्त होता है, उतना फल भगवान् आदिनाथ के स्मरण मात्र से प्राप्त हो जाता है।
मार्कण्डेय पुराण (40/39-41) में तीर्थंकर ऋषभदेव के वर्णन में लिखा है कि उन्होंने अपने पुत्र भरत को राज्यभार सौंपा और स्वयं विरक्त हो गये। इन्हीं भरत के नाम पर देश का नाम भारतवर्ष पड़ा।
कूर्मपुराण में आया है कि महात्मा नाभि और मरुदेवी का पुत्र ऋषभ हुआ, जो अमानत क्रान्तिकारी था। ऋषभ से सौ वीर पुत्र हुए, जिनमें भरत ज्येष्ठ था। निष्क्रमण काल में ऋषभदेव ने उसका राज्याभिषेक किया। पश्चात् भरत पृथ्वी पति हुआ। यथा-
हिमाह्वयं तु यद्वर्ष, नाभेरासीमहात्मनः।
तस्यर्षभोऽभवत् पुत्रो मरुदेव्यां महाद्युतिः।
ऋषभाद् भरतो जज्ञे वीरः पुत्रशताग्रजः।
सोऽभिषिच्यर्षभः पुत्रं भरतं पृथिवीपतिः॥ ( अध्याय 41, श्लोक 37-38, पृ. 61)
इससे मिलता-जुलता कथन ‘ब्रह्माण्ड पुराण’, पूर्वार्ध, अनुषङ्गपाद, अध्याय 14 में भी आया है-
नाभि राजा ने मरुदेवी महारानी से मनोहर क्षत्रियों में प्रधान और समस्त क्षत्रियों के पूर्वज ऐसे ऋषभ नामक पुत्र को उत्पन्न किया। ऋषभनाथ से उत्पन्न सबसे ज्येष्ठ ऐसा भरत नाम पुत्र हुआ। ऋषभनाथ उस भरत का राज्याभिषेक करके स्वयं दिगम्बर दीक्षा लेकर मुनि हो गये। इसी आर्य भूमि में इक्ष्वाकुवंश में उत्पन्न पुत्र ऋषभनाथ ने उत्तम क्षमादि दश धर्मों को स्वयं धारण किया और केवलज्ञान प्राप्त कर इन दस-धर्मों का प्रचार किया।
इसी प्रकार के कथन वाराहपुराण (10), लिगपुरा (47), अग्निपुराण (10/10- 11), वायुपुराण (33/50-52), ब्रह्माण्डपुराण (14/61), विष्णुपुराण (1/27-28) और स्कन्धपुराण (37/50) आदि में उपलब्ध हैं और प्रायः इन सभी ग्रन्थों में ऋषभदेव के माता-पिता का सही नाम मिलता है। उनके जन्मस्थान, शूरवीरता, राज्य-संचालन और पारिवारिक वृत्त भी इन ग्रन्थों में तत्र-यत्र उपलब्ध है।
ऋषभदेव का निर्वाण कैलाश पर्वत से हुआ, इस बात की पुष्टि करता हुआ एक बहुत ही सुन्दर श्लोक ‘शिवपुराण’ (59) में आया है। यथा-
कैलाशे पर्वते रम्ये वृषभोऽयं जिनेश्वरः ।
चकार स्वावतारं च सर्वज्ञः सर्वगः शिवः ।। 59 ॥
अर्थात् सर्वव्यापी, कल्याण, सर्वज्ञाता, सर्वदर्शी, शिव यह ऋषभदेव जिनेश्वर स्वयं ही मनोहर कैलाश पर्वत पर अवतरित हुए हैं अर्थात् तप या योगनिरोध हेतु पधारे हैं।
यह सर्वविदित है कि वृषभदेव ने कैलाश पर्वत से मुक्ति प्राप्ति की है। इस श्लोक में आगत जिनेश्वर और सर्वज्ञ पद पर उनके केवलज्ञानी होने की पुष्टि करते हैं।
विष्णुपुराण (2/1, पृ. 27) में भगवान् ऋषभदेव को आर्हत् (जैन) धर्म का प्रवर्तक स्पष्ट रूप से लिखा है।
ऋषभदेव के पुत्र भरत के नाम पर ही इस देश का नाम भारतवर्ष हुआ है। इस बात की पुष्टि भी कई हिन्दु पुराणों से होती है। यथा-
नभिर्मेरुदेव्यां पुत्रमजनयद् ऋषभनामनं, तस्य भरतो पुत्रश्य तावदग्रजः । तस्य भरतस्य पिता ऋषभो हेगाद्रेः वर्षमदद् …….. इयिदि। (वाराह पुराण-74)
अर्थात् नाभिराय और मरुदेवी के ऋषभ नाम का पुत्र हुआ। उन ऋषभदेव के भरत आदि सौ पुत्र हुए। भरत सबसे बड़ा था। ऋषभ ने भरत को हिमालय के दक्षिण वाला क्षेत्र दिया था, जिसका नाम आगे चलकर भरत के नाम पर भारतवर्ष पड़ा। लिंगपुराण (47/19-24) में नाभिराय को हिमालय के उत्तर- दक्षिणावर्ती प्रदेश का शासक बताया गया है। इनके पुत्र का नाम ऋषभदेव आया है। ऋषभ की माता का नाम मरुदेवी था। ऋषभ के पुत्र भरत थे, जिनके नाम पर इस देश का नाम भारतवर्ष पड़ा।
शिवपुराण में स्पष्ट उल्लेख है कि नाभिराज के पुत्र ऋषभ हुए और इन ऋषभदेव से भरत हुए, उन भरत के नाम पर देश का नाम भारतवर्ष पड़ा-
नाभेः पुत्रश्च वृषभो वृषभाद् भरतोद्भवत्।
तस्य नाम्ना त्विदं वर्ष भारतं चेति कीर्त्यते ।। 3759 ॥
आचार्य श्री सन्मतिसागर जी गुरुदेव बताते हैं कि आचार्य श्री आदिसागर जी (अंकलीकर) के पट्टाधीश आचार्य श्री महावीरकीर्ति जी कहा करते थे कि ‘सर्वप्रथम इस देश का नाम तीर्थंकर ऋषभदेव के पिता नाभिराय के नाम पर ‘अजनाभवर्ष’ था, बाद में उनके पुत्र चक्रवर्ती भरत के नाम पर ‘भारतवर्ष’ पड़ा।
अन्य महत्वोल्लेख
सार्थ एकनाथ भागवत (2/4/45) में सन्त एकनाथ ने लिखा है- “ऋषभदेव के पुत्र भरत ऐसे थे, जिनकी कीर्ति सारे संसार में आश्चर्यजनक रूप से फैली हुई थी। भरत सर्वपूज्य है। किसी भी पवित्र कार्य को प्रारम्भ करते समय भरतजी का नाम स्मरण किया जाता है। इन्हीं भरत के नाम पर इस देश का नाम ‘भारतवर्ष’ पड़ा।”
अमरसिंह के अमरकोष में जैन धर्म के पर्यायवाची नाम इस प्रकार आये हैं-
स्यात् स्याद्वादिक-आर्हकः आर्हत इत्यपि। (2/7/18)
हनुमान नाटक (113) में जैन शासन में रत व्यक्तियों को अर्हन्त कहा है- अर्हन्नित्यथ जैन शासनरता।
जैन या अर्हत् धर्म और दर्शन अनादिकाल से स्वतन्त्र प्रवाहित है। षड्दर्शनों में जैन दर्शन का नाम सदा से ही रहा है। शरदीयाख्य नाममाला (147) में जैन, मीमांसक, बौद्ध, शैव, वैशेणिषक, नैयायिक ये छह दर्शन प्रमुख बताये हैं-
जैना मीसंका बौद्धा शैवा वैशेषिका अपि।
नैयायिकाश्च मुख्यानि दर्शनानीह सन्ति षटा ॥
उपरोक्त सभी प्रमाणों से जैनधर्म और उसके प्रवर्तक ऋषभादि तीर्थंकरों की प्राचीनता असंदिग्ध है। किन्हीं भी वैदिक/शास्त्रीय प्रमाणों से जैनधर्म ब्राह्मण क्रियाकाण्डों के विरोध में जन्मा, वैदिक संस्कृति की शाखा या बौद्ध धर्म के समकालीन सिद्ध नहीं होता अपितु उससे बहुत पीछे तक जाता है।
एक ज्ञातव्य तथ्य यह भी है कि वैदिक साहित्य के लगभग प्रत्येक ग्रंथ में जैन संस्कृति के प्रति बहुमान के, आदर के, उसकी संस्कृति के कुछ न कुछ सूत्र (वाक्य) अवश्य ही उपलब्ध होते हैं; जबकि किसी भी जैन शास्त्र में वैदिक संस्कृति के प्रति बहुमान के वाक्य उपलब्ध नहीं होते, अपितु उसके बहिष्कार के सम्बन्ध में बहुत कुछ लिखा गया; जिससे सिद्ध होता है कि
सनातन अर्हत् संस्कृति अनादिशाश्वत है।
‘वैदिक साहित्य में जैन संस्कृति’ शीर्षक से पी.एच.डी. की उपाधि हेतु एक वृहत् शोध प्रबन्ध लिखा जाना चाहिए। बौद्ध साहित्य में जैन संस्कृति तथा पुरातत्व में जैन संस्कृति शीर्षक से भी बहुपृष्ठीय शोध-प्रबन्ध लिखे जा सकते हैं।
आचार्य सुनीलसागर