प्रातःस्मरणीय परम पूज्य भावलिंगी संत, श्रमणाचार्य श्री विमर्श सागर जी मुनिराज विश्व की एक जगमगाती महान् विभूति हैं, मनीषी और यशस्वी संत हैं। आपका जीवन सहस्रदल कमल के समान सुवासित व रमणीय है, जो प्रतिपल प्रतिक्षण अपने मधुर सौरभ के खजाने को लुटाता रहता है। तेजस्वी सूर्य के समान दिव्य आलोक प्रदान करता है और गंगा की निर्मल धारा की तरह सरसता का संचार करता है। इसीलिए वह वन्दनीय, वर्णनीय और अर्चनीय है।
पूज्य गुरुवर का विराट् जीवन दर्शन, ज्ञान और चारित्र की परम पावनी त्रिपथगा है। जो भी पूज्य गुरुवर के सान्निध्य में आता है वह अनिर्वचनीय आनन्द, अगाध तृप्ति और अन्तहीन विश्रांति का अनुभव करता है। वस्तुतः पूज्य गुरुवर का जीवन रमणीयता का असयकोष है। दिन भर कर्मयोगी की तरह कार्य करते रहने पर भी शरीर पर थकान, मुख पर म्लानता और मानसिक विक्षोभ की एक रेखा भी आपके चेहरे पर दिखलाई नहीं देती। प्रत्येक क्षण वही तत्परता, वही लीनता, वही जीवन और जगत् के गम्भीर रहस्यों का अन्वेषण करती हुई भाव मुद्रा, वही चेहरे पर मुस्कराहट और वही चिन्तवन की अविरल धारा में अवगाहन करते।
पूज्य गुरुवर विमर्श सागर जी मुनिराज का व्यक्तित्व सत्यं शिवं सुन्दरम् की अपूर्व समन्विति है। आपके प्रत्येक चरण में मानवता की मुस्कराहट है, प्रत्येक शब्द में समन्वय का और जिनागम पंथ जयवंत हो का उद्घोष है, प्रत्येक चिन्तन में दिव्य आलोक है और प्रत्येक श्वासोच्छवास में अनन्त विश्वास है।
पूज्य गुरुवर को तपःपूत व्यक्तित्व को देखकर . के समस्त नगरवासी स्वर्णिम विमर्श उत्सव के सुनहरे अवसर पर अगाध श्रद्धा के सुवासित सुमनों की लघु भेंट उनके श्रीचरणों में समर्पित करते हुये पूज्य गुरुवर को ‘विश्व योगी’ के अलंकरण से अलंकृत करते हुये धन्यता का अनुभव कर रहे हैं। हमारे हृदय की यही मंगल भावना है आप दीर्घायु हों, शतायु हों और हम आपके कुशल मार्गदर्शन में दर्शन-ज्ञान और चारित्र में निरन्तर बढ़ते रहें।
भारतीय संस्कृति में संतों की बड़ी महिमा गायी गई है। संत चाहे वर्तमान के हों या अतीत के, जिनका जीवन प्रेरणास्रोत होता है, जो व्यक्तिगत स्वार्थ साधना से ऊपर उठकर पूरी मानव जाति के कल्याण की भावना रखते हैं, वे ही संत श्रद्धा और सम्मान के पात्र होते हैं।
परम पूज्य भावलिंगी संत, श्रमणाचार्य श्री विमर्श सागर जी मुनिराज एक ऐसे दिगम्बर संत हैं, जिनका जीवन राग-द्वेष से मुक्त, गम्भीरता और विरक्ति लिए हुये हैं। अध्यात्म जगत् को इन पर महान् गौरव है। पूज्य गुरुवर अहिंसा, संयम और तप की चलती- फिरती त्रिवेणी है। ऐसे तेजस्वी, वचस्वी महान् संत के चरणों की रज लेकर मनुष्य तो क्या स्वर्गपुरी के देवता भी अपने भाग्य की सराहना करते हैं।
आपने मात्र 22 वर्ष की उम्र में संयम पथ पर कदम बढ़ा दिए और 25 वर्ष की उम्र में यथाजात स्वरूपी दिगम्बर दीक्षा धारण कर ली। आपका चलना-फिरना, उठना-बैठना आदि सभी चेष्टाएँ विलक्षणता लिए हुये रहतीं। जब कोई अपनी अनुभव की आँखों से देखता तो बरबस बोल उठता, यह तो महान् योगी हैं। जब आप सभा मंच पर आसन पर आसीन होते तो आपकी तन्मयता, आसन की स्थिरता देख ऐसे लगता जैसे कोई महान् योगी ध्यान मुद्रा में बैठा है। इस प्रकार आपकी अनेक विध असाधारण चेष्टाओं को देखकर नगर की सम्पूर्ण दिगम्बर जैन समाज पूज्य गुरुवर के श्री चरणों में नतमस्तक होते हुये अपने हृदय के पुष्प समर्पित करते हुये स्वर्णिम विमर्श उत्सव मंगलोत्सव पर पूज्य गुरुवर को ‘युग संत’ के अलंकरण से अलंकृत कर गौरवान्वित है।
अनुत्तर श्रद्धा, अप्रतिम विनय, अद्वितीय समर्पण, अद्भुत विवेक, अंतहीन करुणा, अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग, अप्रतिहत तर्कशक्ति, अप्रकंप पुरुषार्थ, अप्रमत्त जीवनचर्या, अनवरत सकारात्मक दृष्टिकोण, उपशांत कषाय, अनाविल चारित्र इन सबके समुच्चय का नाम है श्रमणाचार्य श्री विमर्श सागर जी महाराज। पूज्य श्रमणाचार्य श्री ने अध्यात्म की ऐसी अखण्ड ज्योति प्रज्ज्वलित की है, जिसमें अवगाहन कर मानव जीवन का हर क्षण आलोकमय और प्रभास्वर हो रहा है। उसकी रश्मियों के विकिरण साधकों, व्यक्तियों और कृतियों में खोजे जा सकते हैं। पूज्य श्री की प्रतिभा ने नये चिन्तन के द्वारा उद्घाटित किये हैं, संस्कृति और साहित्य की विविध विधाओं की सर्जना की है। आप जैन सिद्धान्तों के गम्भीर रहस्यों के ज्ञाता हैं और साथ ही व्याकरण, न्याय, काव्य आदि के मर्मज्ञ विद्वान हैं। आपका बुद्धि वैभव, प्रतिभा, प्रज्ञा, मेधा और तीक्ष्ण स्मरण शक्ति से प्रभावित होकर जैन समाज के श्रेष्ठीजन एवं विद्वत वर्ग ने आपको स्वर्णिम विमर्श उत्सव पर अपने हृदय की निर्मल भावनाओं को विनयांजलि के रूप में समर्पित करते हुये ‘सारस्वत साधक’ की उपाधि से अलंकृत कर अपने आपको गौरवान्वित करती है।
मानव के अन्तर्मन की भावनाओं, अनुभूतियों कल्पनाओं और विचारसरणी का प्रतिबिम्ब काव्य होता है। काव्य के कण-कण में कवि की व्यक्तिगत एवं सामाजिक संवेदना समायी होती है परम पूज्य श्रमणाचार्य श्री 108 विमर्श सागर जी मुनिराज की काव्य रचना साधारण से असाधारण का प्रतिबिम्ब उपस्थित करता है। श्रान्त-क्लान्त मानव मन को विश्राम देकर उसे अलौकिक आनन्द में आप्लावित करने की क्षमता पूज्य श्री श्रमणाचार्य श्री जी के काव्यों में निहित है। जिसमें सौन्दर्य से अनुप्राणित मानव की अनुभूतियाँ अपनी व्याख्या खोजती हैं। काव्य रचना में अनेक स्थलों पर पूज्य श्री करुणासिक्त नजर आते हैं, जो उनकी बौद्धिकता और ज्ञानार्जन का प्रतिफल है। पूज्य श्री की काव्य प्रतिभा से प्रभावित होकर जैन समाज आपको ‘स्वर्णिम विमर्श उत्सव’ की पावन मंगलमयी बेला में ‘काव्य महोदधि’ अलंकरण से अलंकृत कर पूज्य श्री के पावन श्री चरणों में अपनी विनयांजलि समर्पित करती है।
परम पूज्य श्रमणाचार्य भावलिंगी संत 109 श्री विमर्श सागर जी मुनिराज वात्सल्य, प्रेम और करुणा के धारावाही स्रोत हैं। उनकी वाणी, नेत्रों, हाथों और कर्म से करुणा की अविरल धारा प्रवाहित होती रहती है। ऐसा तेजस्वी नक्षत्र किसी विरल व्यक्ति की कुंडली में होता है। पूज्य श्री के वात्सल्य, प्रेम और करुणा जल का सिंचन पाकर अनेक व्यक्ति विराट् की दिशा में गतिशील हुये हैं। संघस्थ साधक साक्ष्य हैं उनकी वात्सल्य, प्रेम और करुणा की धारावाही प्रवाह के।
पूज्य श्रमणाचार्य श्री विमर्शसागर जी मुनिराज की स्नेहिल छत्रछाया में दिगम्बर जैन समाज को पल्लवित, पुष्पित और फलित होने का अवसर अनेकों बार प्राप्त हुआ है। पूज्य गुरुवर के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हुये की समस्त समाज स्वर्णिम विमर्श उत्सव के महाआयोजन पर पूज्य गुरुवर को अपनी भावांजलि अर्पित करते हुये ‘सौम्य मूर्ति’ के पद को अलंकृत करते हुये अत्यन्त गौरवान्वित है।
परम पूज्य भावलिंगी संत श्रमणाचार्य श्री 108 विमर्श सागर जी मुनिराज का व्यक्तित्व इतना उच्च और भव्य है कि वे स्वयं ही अभिनन्दनीय नहीं, वरन् समम् श्रमण संघ को भी अभिनन्दनीय बना दिया है। इस कलिकाल युग में चतुर्विध संघ को दिशा बोध दे रहे हैं।
पूज्य श्री अपनी असाधारण विद्वता से जैन शासन की महान् सेवा कर रहे हैं। आपने अपने ज्ञानालोक से शासन-गगन को प्रभावित किया है। पूज्य आचार्य श्री निःसंदेह ज्ञान और क्रिया के धनी हैं। वाग्मिता ने आपको वरण किया है। आपका वाणी वैभव आपकी अन्तःशक्ति का प्रमाण है। अध्यात्म योग की दीर्घ साधना से सम्पन्न पूज्य आचार्य श्री जी का व्यक्तित्व अपूर्व है।
पूज्य आचार्य श्री विशाल संघ के नायक हैं। विनम्रता, सहिष्णुता, गाम्भीर्यता आदि गुणों से सुशोभित हैं। विनम्रता तो आपके अणु-अणु में झलकती है। और आपका सबसे बड़ा गुण वैभव है आपकी गाम्भीरता। आपका जीवन सरोवर सरलता के सुमधुर सलिल से भरा हुआ है और हजारों-हजारों प्यासे कण्ठों का संगम स्थल है। पूज्य श्री की महत्त्वपूर्ण विशेषता यह भी है कि वे शान्त और स्थिरचित्त हैं। वार्तालाप व प्रवचन के प्रसंग में आपके निर्मल चिन्तन के दर्शन होते हैं। वार्तालाप व प्रवचन के प्रसंग में आपके निर्मल चिन्तन के दर्शन होते हैं। एक ही व्यक्ति में अनेक गुणों का प्रगटीकरण देख की समाज बहुत ही प्रभावित हुई अपने हृदय की अभिव्यक्ति प्रगट करते हुये स्वर्णिम विमर्श उत्सव के पावन अवसर पर सम्पूर्ण जैन समाज पूज्य आचार्य श्री को ‘युगाचार्य’ अलंकरण से विभूषित करते हुये गौरवान्वित है।
शस्यश्यामला भारत वसुन्धरा पर समय-समय पर ऐसे देदीप्यमान रत्न हुये हैं, जिनकी ज्योति से वसुन्धरा जगमगा ही नहीं रही है अपितु आने वाली पीढ़ी के लिए, ज्योति और आशा की किरण है। ऐसे महापुरुषों की रत्नावली में एक-दो रत्न नहीं अपितु अनेक रत्न हुये हैं। रत्नों की इस श्रृंखला में एक विलक्षण रत्न हैं परम पूज्य सद्धर्म प्रवर्तक श्रमणाचार्य श्री विमर्श सागर जी मुनिराज। यथा नाम तथा गुण के अनुसार आप धीर, वीर, गम्भीर, स्पर्शादर्शी, मृदुभाषी, सुदीर्घदर्शी, विद्वान, निपुण साधक हैं। स्वयं आत्म साधना करते हुये धर्म प्रभावना कर रहे हैं।
‘णमो आइरियाणं’ पंच परमेष्ठियों में आचार्य का तीसरा स्थान (पद) है। पूज्य आचार्य श्री अपने छत्तीस मूलगुणों का पालन करते हुये संघ के समस्त साधकों को मोक्ष मार्ग पर चलने का मार्ग प्रशस्त करते हैं। भव्य जीवों को दीक्षा प्रदान कर उनका उद्धार करते हैं। केवल इतना ही नहीं किसी साधक को प्रमादवश दोष लगे हो तो उन्हें प्रायश्चित आदि भी प्रदान करते हैं। सदैव (अहर्निश) भव्यात्माओं को उपदेश देकर सन्मार्ग पर लाते हैं।
परम पूज्य श्रमणाचार्य श्री विमर्श सागर जी मुनिराज के दिव्य जीवन में उदात्त भाव और भव्य भावनाएँ भरी हुई हैं। इसी उदात्त भावनाओं से प्रभावित होकर .. की समस्त दिगम्बर जैन समाज एवं विद्वतजन स्वर्णिम विमर्श उत्सव के पावन प्रसंग पर अपने हृदय की निर्मल भावनाओं के पुष्प समर्पित करते हुये पूज्य आचार्य श्री विमर्शसागर जी मुनिराज को ‘आचार्य रत्न’ की उपाधि से अलंकृत कर गौरवान्वित है।
आत्म साधना के हिमालय परम पूज्य श्रमणाचार्य श्री 108 विमर्श सागर जी मुनिराज सैद्धान्तिक आगम ग्रन्थों का सूक्ष्म तलस्पर्शी अध्ययन कर आत्म चिन्तन, आत्मानुशीलन और आत्म परिमार्जन करने में निमग्न हैं। आप केवल आत्मानुकंपी ही नहीं परानुकंपी भी हैं। आपकी शान्त-शीतल छाया में सभी साधक ज्ञानार्जन करते हैं तथा मोक्ष मार्ग की गहन ग्रन्थियों को सुलझाते हैं।
पूज्य आचार्य श्री जी की सैद्धान्तिक आगमोक्त वाणी सत्यं, शिवं, सुन्दरम् की विराट अभिव्यक्ति मुक्ति द्वार खोलने में सक्षम है। धर्म, दर्शन, कर्म, संस्कृति तथा अध्यात्म का पंचामृत आपकी वाणी से निसृत होता है। अक्षर-अक्षर में सैद्धान्तिक शब्दत्व की अनुगूँज उत्पन्न करने तथा उस शब्दत्व में अर्थत्व की अनेकांत सामर्थ्य भरने में कोई जोड़ नहीं है।
पूज्य आचार्य श्री जी की आगमोक्त चर्या और सैद्धान्तिक विवेचना से प्रभावित होकर नगर की समाज स्वर्णिम विमर्श उत्सव के इस मांगलिक आयोजन में पूज्य गुरुवर को “सिद्धान्तज्ञ” की उपाधि से अलंकृत कर गौरवान्वित है।
परम पूज्य आचार्य श्री आदिसागर जी अंकलीकर महामुनिराज की गौरवशाली परम्परा के आचार्य परम पूज्य गणाचार्य श्री विमर्श सागर जी मुनिराज के परम प्रभावक शिष्य विमर्श लितिप के सृजेता, राष्ट्रकवि, भावलिंगी संत श्रमणाचार्य श्री विमर्शसागर जी मुनिराज की अद्भुत मर्मस्पर्शिनी प्रज्ञा तथा अत्यन्त शान्त एवं सौम्य मुद्रा सभी को लुभाती है। पूज्य श्री आगम ग्रन्थों में गर्भित ज्ञान के समुद्र में छिपे रत्नों को वस्तु स्वरूप के विभिन्न आयामों की व्याख्या अनेकांत और स्याद्वाद शैली में जन-जन को प्रसारित कर रहे हैं। पूज्य आचार्य श्री जी का जीवन दिव्य, ज्योतिर्मय और तेजस्वी है। आप अनेक अन्धकाराच्छादित लोगों के जीवन को सम्यक् ज्ञान का प्रकाश दे रहे हैं और उच्च से उच्चतर बनाने की प्रेरणा दे रहे हैं। आप अद्वितीय साधक हैं। यथा नाम तथा गुण के अनुसार धीर, गम्भीर, स्पर्शादर्शी, मृदुभाषी, सुदीर्घदर्शी, विद्वान, बहुभाषी और निपुण हैं। आपकी मृदु वाणी से निर्णरित व्याख्यानमाला आगम सम्मत् स्याद्वाद शैली अद्भुत एवं परम गम्भीर है। आपने अपने जीवानुभव को वैयक्तिक से निवैयक्तिक, क्षुद्र कालखण्ड से कालातीत और संकीर्ण स्थल से विस्तीर्ण सार्वदेशिकता प्रदान की है। जिसके अक्षर – अक्षर में शब्दत्व की अनुगूँज उत्पन्न तथा उस शब्दत्व में अर्थत्व की सामर्थ्य भरने में कोई जोड़ नहीं है।
पूज्य श्री की अनेकान्त और स्याद्वादमयी वाणी से प्रभावित होकर नगर की समस्त दिगम्बर जैन समाज इस स्वर्णिम विमर्श उत्सव के भव्य आयोजन में पूज्य गुरुवर आचार्य श्री के पावन श्री चरणों में श्रद्धा के पुष्प समर्पित करते हुये पूज्य आचार्य श्री जी को ‘स्याद्वाद केशरी’ की उपाधि से अलंकृत कर गौरवान्वित हो, कृतकृत्य हो रहा है।
परम पूज्य आचार्य श्री आदिसागर जी अंकलीकर महामुनिराज की गौरवशाली परम्परा के आचार्य परम पूज्य गणाचार्य, सूरिगच्छाचार्य परम पूज्य श्री विराग सागर जी मुनिराज के परम प्रभावक शिष्य जतारा नगर गौरव, आहार जी के छोटे बाबा, आदर्श महाकवि, विमर्श लिपि के सृजेता, चतुर्विध संघ के नायक, राष्ट्रयोगी, जीवन है पानी की बूँद के रचयिता परम पूज्य भावलिंगी संत श्रमणाचार्य श्री विमर्श सागर जी मुनिराज दिगम्बर जैन समाज के मूर्धन्य संत हैं। आपने पूर्वाचार्यों द्वारा सृजित आगम ग्रन्थों का गहन अध्ययन किया है और अन्यों को भी गम्भीर अध्ययन करने की प्रेरणा दे रहे हैं।
पूज्य श्रमणाचार्य श्री आगम साहित्य के ही नहीं, दर्शन, साहित्य और संस्कृति के भी गहन अध्येता हैं। आप जैन सिद्धान्तों को सदैव ध्यान में रखते हुये, पठन, पाठन, चिन्तन, मनन व ध्यान में ही अपना अधिकांश समय व्यतीत कर अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग में सदैव संलग्न रहते हैं। आपने संघस्थ शिष्य शिष्याओं को स्वाध्याय व ज्ञानार्जन करने की पावन प्रेरणा दी व उन्हें ज्ञान-ध्यान में पारंगत बनाया वह स्पृहणीय है।
अन्तस् के ज्ञान चक्षु खोलने हेतु स्वाध्याय परमावश्यक है। आप जिनागम के अक्षय कोष को अपनी लेखनी से सुस्पष्ट करते हुये श्रुत लेखन, टीका लेखनादि के रूप में समृद्ध करने का महनीय कार्य कर रहे हैं। आपने स्वयं ज्ञानार्जन कर अनेक साहित्य मनीषी तैयार किये हैं। यह स्तुत्य है। आप अनिकेतन हैं और वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना से ओत-प्रोत हैं। आपकी ज्ञानार्जन करने और कराने की सप्रवृत्ति से प्रभावित होकर दिगम्बर जैन समाज पूज्य गुरुवर श्रमणाचार्य के मांगलिक अवसर पर ‘अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी’ उपाधि से अलंकृत कर गौरवान्वित है।
परम पूज्य राष्ट्रयोगी भावलिंगी संत श्रमणाचार्य श्री 108 विमर्श सागर जी मुनिराज प्राचीन शास्त्रों के गम्भीर ज्ञाता, आधुनिक ज्ञान-विज्ञान के गम्भीर अध्येता, भारतीय संस्कृति और दर्शन के विश्वविश्रुत सन्देशवाहक, सहस्त्रों जिज्ञासुओं के मार्गदर्शक तथा वसुधैव कुटुम्बकम् के जीवन्त प्रतीक है। आपके अनुपम व्यक्तित्व में विलक्षणता, वाणी में अद्भुत तेजस्विता, विचारों में ऋषियों की मौलिकता तथा कार्यों में दिव्य उदात्तता है।
परम पूज्य आचार्य श्री विमर्श सागर जी मुनिराज धर्मोपदेशक, प्रवचनकार एवं कुशल वक्ता के रूप में विख्यात हैं। आपकी वाणी से विद्वता, आचरण से संस्कारिता, व्यवहार से मृदुल अनुशासनात्मक स्वभाव का परिज्ञान होता है। आपकी निष्पृह वाणी में शाम का नीर मिला है। वह शीतल है। इतनी कि चन्दन, चन्द्र, गंगाजल और मुक्तावली के हारों में भी वह शीतलता प्राप्त नहीं होती।
पं. दौलतराम जी ने मुनियों की वाणी को विश्व हितकर, अहित निवारण, कर्ण प्रिय, संशय हारिणी बताते हुये लिखा है कि साधु वक्ताओं का मुख चन्द्रमा समान है और उनकी प्रबोध वाणी श्रम रोग हारिणी, अमृतरसस्यन्दिनी है और विचारों की सौरभ को फैलाने वाली पवन है। अन्तर्दृश्य की असीम ऊँचाई से प्रस्फुटित शब्दों की धारा में बहने के कारण वाणी को पवित्र नहीं माना है और इसी सरिता के जल सिंचन से संस्कृति-साहित्य का उद्यान या खेत हरा-भरा होता है।
पूज्य आचार्य श्री जी की मंगलमयी वाणी के एक-एक शब्द में आगम सिद्धान्तों का शंखनाद है, जिसमें श्रोता को आल्हादित करने की क्षमता भरी है। पूज्य गुरुवर की वाणी अक्षय शक्ति का भण्डार है।
पूज्य गुरुवर आचार्य श्री विमर्श सागर जी मुनिराज की निसृत वाणी से प्रभावित और आल्हादित होकर नगर की सम्पूर्ण समाज स्वर्णिम विमर्श उत्सव के महाआयोजन के पावन अवसर पर पूज्य गुरुवर को “ओजस्वी वक्ता” अलंकरण से अलंकृत कर प्रसन्नता का अनुभव करते हुये गौरवान्वित है।
परम पूज्य राष्ट्रयोगी भावलिंगी संत श्रमणाचार्य श्री 108 विमर्श सागर जी मुनिराज दिगम्बर जैनाचार्य है। अध्यात्म जगत् में आचार्य पद का बड़ा महत्त्वपूर्ण स्थान है। आचार्य साक्षात् गुरु होते हैं। गुरु वह प्रकाश मान स्तम्भ है, जो शिष्यों को अध्यात्म ज्ञान का प्रकाश देते हैं और उसके आन्तरिक अन्धकार को दूर करते हैं।
परम पूज्य गुरुवर विमर्श सागर जी मुनिराज श्रमण संघ के नायक हैं, आचार्य हैं और अपने शिष्यों पर अनुग्रह कर अध्ययन- अध्यापन कराते हैं। पूज्य श्री प्राकृत भाषा में निपुर्ण हैं, आपने प्राकृत भाषा का सूक्ष्म रूप से अध्ययन किया है और शिष्यों को भी प्राकृत भाषा का अध्यापन कराते हैं। आपकी विश्लेषण करने की पद्धति बड़ी अनूठी है। आपने दिगम्बराचार्य अमितगति स्वामी जी की कृति ‘योगसार प्राभृत’ पर प्राकृत भाषा में ‘अप्पोदया’ अपरनाम ‘विमशोंदया’ टीका का सृजन कर एक कीर्तिमान स्थापित किया है। जो आपकी सूक्ष्म दृष्टि से चिन्तन-मनन-निदिध्यासन को दर्शाता है। पूज्य श्री में आचार्यत्व के सभी गुण विद्यमान हैं। दिवाकर की तरह अध्यात्म जगत् के आचार्य पद की गरिमा को प्रकाशमान कर रहे हैं, चमका रहे हैं।
पूज्य गुरुवर के पल्लवित, पुष्पित, प्राकृत भाषा में निष्णात शिष्य उद्यान को देखकर दिगम्बर जैन समाज पुलकित हो पूज्य गुरुवर श्रमणाचार्य जी विमर्श सागर जी मुनिराज को “प्राकृताचार्य” अलंकरण से विभूषित कर अपने आप में गौरवान्वित है।
मानव के अन्तर्मन की भावनाओं, अनुभूतियों, कल्पनाओं और विचार सरणी का प्रतिबिम्ब काव्य होता है। काव्य के कण- कण में कवि की व्यक्तिगत एवं सामाजिक संवेदना समायी होती है परम पूज्य श्रमणाचार्य श्री 108 विमर्श सागर जी मुनिराज की काव्य रचना साधारण से असाधारण का प्रतिबिम्ब उपस्थित करता है। श्रान्त-क्लान्त मानव मन को विश्राम देकर उसे अलौकिक आनन्द में आप्लावित करने की क्षमता पूज्य श्री श्रमणाचार्य श्री जी के काव्यों में निहित है। जिसमें सौन्दर्य से अनुप्राणित मानव की अनुभूतियाँ अपनी व्याख्या खोजती हैं। काव्य रचना में अनेक स्थलों पर पूज्य श्री करुणासिक्त नजर आते हैं, जो उनकी बौद्धिकता और ज्ञानार्जन का प्रतिफल है। पूज्य श्री की काव्य प्रतिभा से प्रभावित होकर जैन समाज आपको ‘स्वर्णिम विमर्श उत्सव’ की पावन मंगलमयी बेला में ‘काव्य महोदधि’ अलंकरण से अलंकृत कर पूज्य श्री के पावन श्री चरणों में अपनी विनयांजलि समर्पित करती है।
अनुत्तर श्रद्धा, अप्रतिम विनय, अद्वितीय समर्पण, अद्भुत विवेक, अंतहीन करुणा, अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग, अप्रतिहत तर्क शक्ति, अप्रकंप पुरुषार्थ, अप्रमत्त जीवन चर्या, अनवरत सकारात्मक दृष्टिकोण, उपशांत कषाय, अनाविल चरित्र इन सबके समुच्चय का नाम है श्रमणाचार्य श्री विमर्श सागर जी महाराज।
पूज्य श्रमणाचार्य श्री ने अध्यात्म की ऐसी अखण्ड ज्योति प्रज्ज्वलित की है, जिसमें अवगाहन कर मानव जीवन का हर क्षण आलोकमय और प्रभास्वर हो रहा है। उसकी रश्मियों के विकिरण साधकों, व्यक्तियों और कृतियों में खोजे जा सकते हैं। पूज्य श्री की प्रतिभा ने नये चिन्तन के द्वार उद्घाटित किये हैं, संस्कृति और साहित्य की विविध विधाओं की सर्जना की है। आप जैन सिद्धान्तों के गम्भीर रहस्यों के ज्ञाता हैं और साथ ही व्याकरण, न्याय, काव्य आदि के मर्मज्ञ विद्वान हैं। आपका बुद्धि, वैभव, प्रतिभा, प्रज्ञा, मेधा और तीक्ष्ण स्मरण शक्ति से प्रभावित होकर जैन समाज के श्रेष्ठीजन एवं विद्वत वर्ग ने आपको स्वर्णिम विमर्श उत्सव पर अपने हृदय की निर्मल भावनाओं को विनयांजलि के रूप में समर्पित करते हुये ‘सारस्वत साधक’ की उपाधि से अलंकृत कर अपने आपको गौरवान्वित करती है।
परम पूज्य श्रमणाचार्य श्री 108 विमर्श सागर जी मुनिराज आचार्य श्री समन्तभद्र स्वामी जी द्वारा प्रतिपादित सच्चे गुरु की निकष “विषयाशावशाती तो निररम्भरोपरिग्रहः । ज्ञानध्यानतपोरत्नः तपस्वी सः प्रशस्यते ।।” के जीवन आदर्श हैं। आप आगम के अनुकूल आचरण करते हुये मूलगुणों एवं उत्तरगुणों का पालन कर उत्कृष्ट निर्दोष चर्या का पालन करते हुये अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग में निरत रहते हैं। अखण्ड ब्रह्मचर्य का तेज आपको घर का मार्तण्ड उद्घोषित करता है। आप ज्ञान के भण्डार, रससिद्ध कवि, सरल स्वभावी, मृदुभाषी, सुदीर्घदर्शी आत्म साधक हैं। आपकी प्रवचन शैली में उभनयनों का समीचीन प्रयोग होता है। अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगिता के फलस्वरूप आपकी अमृत लेखनी से अनेक कृतियाँ प्रसून हुईं हैं। पूज्य आचार्य श्री आत्मराग से आपूरित हैं। आपकी सतेज मेधा, निश्चल जिज्ञासा, अनवरत निष्ठा से आपके व्यक्तित्व को निरन्तर विकास मिल रहा है। आत्मस्वरूप की प्राप्ति एवं आध्यात्मिक तत्त्व का प्रसार ही आपका लक्ष्य है। आपकी दिव्य वाणी से प्रगट हुये जिनामृत को जिसने प्राशन किया वह निश्चित जिनागम पथ का श्रद्धेय बनता है। आपने अपने मधुर उपदेशों से भव्य जीवों को सन्मार्ग रूपी प्रकाश देकर श्रेयोमार्ग प्रशस्त किया तथा आगे भी कर रहे हैं।
पूज्य आचार्य श्री जी का शब्दकोष विपुल एवं विशाल है। अतः अभिव्यक्ति में सर्वत्र स्पष्टता, सरलता, सहजता एवं चारुता के दर्शन होते हैं। आपकी अभिव्यक्ति की ऋजुता ने वक्तव्यकला को सर्वतोभद्र बना दिया है। जिससे श्रवणकर्ता अत्यधिक लाभान्वित हो रहा है। आपका एक वैशिष्ट्य यह भी है कि आप अपने वक्तव्य में आगमिक विषयों को आधुनिक, लौकिक एवं वैज्ञानिक उदाहरणों द्वारा सुग्राह्य रूप में प्रस्तुत करते हैं। जिससे श्रवणकर्ता के ज्ञान चक्षुओं को उन्मीलित कर उसे सन्मार्ग की ओर अग्रसर होने की प्रेरणा मिलती है।
पूज्य आचार्य श्री जी के बहुआयामी व्यक्तित्व एवं कृतित्व से प्रभावित होकर नगर की समस्त दिगम्बर जैन समाज श्रद्धा के प्रसून विनयांजलि के रूप में अर्पित करते हुये इस ‘स्वर्णिम विमर्श उत्सव’ के पावन शुभ अवसर पर पूज्य आचार्य श्री जी को ‘अध्यात्म मार्तण्ड’ अलंकरण से अलंकृत कर गौरवान्वित है, साथ ही भावना भाते हैं कि आप दीर्घायु रहें, आपकी कल्पतरू छत्रछाया सम्पूर्ण विश्व के समस्त प्राणियों पर सदैव बनी रहे।
विश्व के विपुल दर्शनों में सबसे कठिन साधना किसी साधक की है तो वह है जैन दर्शन में दिगम्बर श्रमण की। आगमिक श्रमण परम्परा में आचार्य परमेष्ठी पद पर प्रतिष्ठित परम पूज्य श्रमणाचार्य भावलिंगी संत श्री विमर्श सागर जी मुनिराज दिव्य महापुरुष हैं। आचार्य परमेष्ठी पद को प्राप्त करके आप विशाल चतुर्विध संघ का नेतृत्व कर रहे हैं। आपका तप-तेज-ज्ञान और यश उत्तरोत्तर वृद्धिंगत होता जा रहा है। आगम के अनुसार आचार्य परमेष्ठी में जितने गुण होने चाहिए, वे समस्त गुण आप में विद्यमान हैं।
पूज्य आचार्य श्री जी के पावन सान्निध्य में जो व्यक्ति एक बार आ जाता है, वह आपकी सौम्य छवि को विस्मृत नहीं कर पाता है। आपकी सौम्य छवि तथा मधुर वाणी ने जन-जन के हृदय में अपना स्थान बना लिया है। आपकी धैर्य, क्षमा, शान्ति, समता, गम्भीरता बड़ी ही अद्भुत और अनोखी है। जिसकी सागर जैसी गहराई मापना असम्भव है।
पूज्य आचार्य श्री जी की सौम्य मुद्रा सागर की तरह गम्भीर, पुष्प की तरह कोमल, चन्द्रमा की तरह शीतल एवं शान्ति देने वाली है। आप सूर्य के समान तेजस्वी, आभा लिए, ज्ञान, उपसर्ग परिषह सहने वाले कर्मठ योगी हैं। आकाश की तरह असीम गहराइयों में फैला हुआ आपका वात्सल्य जन-जन को शीतलता प्रदान करता है।
विमल गंगा का जल मन शरीर को पवित्र व शीतलता प्रदान करता है, चन्द्रमा विश्व को शीतलता प्रदान करता है, बसंत ऋतु सोई हुई प्रकृति को नवजीवन प्रदान करती है, वर्षा का जल झुलसती हुई पृथ्वी को तृप्ति प्रदान करता है ऐसे ही परम पूज्य श्रमणाचार्य श्री विमर्श सागर जी मुनिराज की सौम्य छवि, पवित्र दर्शन एवं सान्निध्य भव्य जनों को आत्मिक शान्ति प्रदान करता है।
पूज्य आचार्य श्री जी की सौम्यछवि, परिशुद्ध जीवन और तप-साधना से प्रभावित होकर नगर की समस्त जैन समाज ‘स्वर्णिम विमर्श उत्सव’ के इस महाआयोजन के पावन अवसर पर परम पूज्य श्रमणाचार्य श्री विमर्शसागर जी मुनिराज के पावन श्री चरणों में श्रद्धा के प्रसून समर्पित करते हुए पूज्य गुरुवर को ‘सौम्य ऋषि’ अंलकरण से अलंकृत कर गौरवान्वित है।
परम पूज्य भावलिंगी संत श्रमणाचार्य श्री विमर्शसागर जी मुनिराज दिगम्बराचार्य हैं। आपकी ज्ञान-गरिमा से जैन जगत् गौरवान्वित है। श्रुत देवता की समुपासना में आपका योगदान चिरस्मरणीय है। पूज्य आचार्य श्री बहु भाषाविद्, ज्ञाता, प्रयोक्ता और कवि हैं। हिन्दी भाषा के तो आप साहित्यकार हैं। आपके अनेक ग्रन्थ प्रकाश के परिवेश में वेष्टित हैं, किन्तु प्राकृत और संस्कृत के विशिष्ट वेत्ता और कवि भी हैं। तीर्थंकरों, गणधरों तथा जैनाचार्यों की भाषा प्राकृत रही है। फलतः जैनागमों की भाषा प्राकृत है। एक समय प्राकृत भाषा मातृभाषा थी। जो आज आगम ग्रन्थों में सिमट कर रह गई है।
पूज्य आचार्य श्री प्राकृत भाषा प्रसारक साहित्य की न्यूनता को बड़ी गम्भीरता से अनुभव कर रहे थे। इसी अनुभूति के कारण पूज्य आचार्य श्री जी ने माँ जिनवाणी के कोष को उज्ज्वलता प्रदान करते हुये 1000 वर्ष प्राचीन दिगम्बराचार्य श्री अमितगति स्वामी जी द्वारा सृजित ग्रंथ ‘श्री योगसार प्राभृत’ पर प्राकृत भाषा में “अप्पोदया” अपरनाम “विमर्शोदया” टीका का सृजन किया। पूज्य आचार्य श्री जी के धीर-वीर-गम्भीर और उदात्त विशिष्ट ज्ञान गुण प्रकट हुये। पूज्य आचार्य श्री जी ने प्राकृत भाषा के विकास एवं समुत्कर्ष के लिए यह जो कार्य किया, वह स्तुत्य है। सराहनीय है। प्राकृत भाषा विकास साहित्य में पूज्य आचार्य श्री का यह पावन सत्कार्य सदा सस्मरणीय एवं अभिनंदनीय रहेगा।
पूज्य आचार्य श्री जी के ज्ञान और ज्ञानालोक से आलोकित कृति के सृजन पर अपार प्रसन्नता प्रकट करते हुये दिगम्बर जैन समाज स्वर्णिम विमर्श उत्सव के शुभ अवसर पर “प्राकृत टीकाकार” अलंकरण से अलंकृत कर गौरवान्वित है।
राष्ट्रयोगी परम पूज्य भावलिंगी संत श्रमणाचार्य श्री विमर्श सागर जी मुनिराज एक उच्च कोटि के व्यक्तित्व के धारक श्रमणाचार्य हैं, संघ के नायक हैं। आप जहाँ भी जाते वहाँ अपनी ज्ञान गरिमा की दिव्य ज्योत्सना से सभी को प्रभावित करते हैं। आपके प्रवचनों में जीवन का गहरा चिन्तन-मनन् और अनुभवों का सार तत्त्व दिखलाई देता है। आपने समाज में नहीं चेतना, नई प्रेरणा और नया उत्साह समुत्पन्न किया है। आपकी ज्ञान गरिमा और आचार की मधुरिमा से आपका व्यक्तित्व चारों दिशाओं में जगमगा रहा है। पूज्य आचार्य श्री जी द्वारा सृजित काव्य रचना “जीवन है पानी की बूँद” साधु, संगीतज्ञ, विद्वान और आमजन भी गुनगुनाते हुये नजर आते हैं। आप अपनी प्रतिभा, विद्वता, चारित्र, निर्भयता, उत्कृष्ट आचार-विचार के कारण जनमानस में लोकप्रिय हैं। आपका जीवन गुणों का आगार है। आपकी आगमोक्त साधना तथा कुशल जीवनादर्श पर लेखकों, साहित्यकारों ने अपनी कलम चलाकर अपना सौभाग्य माना है।
पूज्य आचार्य श्री जी ने पवित्रता के पुनीत पथ पर प्रयाण करने का मार्ग प्रशस्त किया है, जहाँ सूर्य का प्रखर प्रकाश भी नहीं पहुँच पाता, ऐसे अज्ञान-अन्धकाराच्छादित हृदय पटलों को पूज्य श्री ने प्रकाशित किया है। पूज्य आचार्य श्री जी अध्यात्म विज्ञानशाला की कसौटी पर खरे जवाहरात हैं। प्रकाश पुंज पूज्य गुरुवर के स्वागतार्थ चराचर विश्व के कण-कण में उत्साह की अरुणिमा व्याप्त हो रही है। ज्ञानियों और गुणियों का अभिनन्दन करना हमारी प्राचीन परम्परा रही है। अतः अनन्त गुणों के धारक पूज्य गुरुवर आचार्य श्री जी को स्वर्णिम विमर्श उत्सव के पावन अवसर सकल जैन समाज अपने श्रद्धा सुमन समर्पित करते हुये पूज्य गुरुवर को “विश्व गुरु” की उपाधि से विभूषित कर गौरवान्वित है।
आगम मनीषी, वात्सल्य सिन्धु, सर्वोदयी संत परम पूज्य श्रमणाचार्य श्री 108 विमर्श सागर जी मुनिराज की मनीषा अत्यन्त प्रखर और तार्तिक है। अहर्निश आगम ग्रंथों के स्वाध्याय में निमग्न रहते हुये उत्तरोत्तर आत्म साधना और तत्त्व ज्ञान की अतुल गहराई में उतरकर ज्ञान सुधा का पान कर रहे हैं। श्रुत साहित्य सम्बर्धन और संघस्थ साधकों को अध्यापन कराने में आप निपुण हैं। कुशल वक्ता और कुशल लेखक एवं कुशल कवि के रूप में आप ख्याति को प्राप्त हैं। आपकी लेखनी से 50 से अधिक साहित्य कृतियों का सृजन हुआ है। जो गद्य, पद्य तथा काव्य रूप में जिनागम को दर्शाता है। विभिन्न संस्कृत श्लोकों का सृजन एवं अनेक ग्रंथों का सृजन भी आपने किया है। आचार्य श्री अमितगति स्वामी जी के श्री योगसार प्राभृत ग्रंथ पर आपने प्राकृत भाषा में ‘अप्पोदया’ अपरनाम ‘विमर्शोदया’ टीका का सृजन कर कीर्तिमान स्थापित किया है। रयणसार ग्रंथ की समीचीन व्याख्या करुणाबुद्धि से प्रवचन करते हुये आपने की है। ‘देश और धर्म के लिए जिओ’ कृति को मध्यप्रदेश शासन द्वारा कक्षा 11 की हिन्दी सामान्य पुस्तक में प्रकाशित किया गया। ‘जाहिद की गजलें’ नामक कृति काफी सराही गई। आपकी तीक्ष्ण प्रज्ञा से वैराग्यनुभूति उत्पन्न कराने वाली काव्य रचना “जीवन है पानी की बूँद” जन-जन के कण्ठ का हार बन गई। पूज्य आचार्य श्री जी द्वारा सृजित साहित्य भाव, भाषा और शैली की दृष्टि से बड़ा प्रशस्त एवं आदरणीय है। आप संयम साधना के साथ साहित्य साधना के महापथ पर प्रगति करते जा रहे हैं।
पूज्य आचार्य श्री जी के बहुआयामी व्यक्तित्व को समाज जहाँ आचार-विचार की सभुज्ज्वलता की दृष्टि से आदरास्पद करता है वहाँ उन्हें एक सफल श्रुत साहित्य सृष्टा के रूप में भी देखता है। इसी से प्रभावित होकर नगर की समस्त दिगम्बर जैन समाज पूज्य आचार्य श्री जी के पावन श्री चरणों में श्रद्धा के पुष्प समर्पित करते हुये विनयांजलि के रूप में ‘श्रुत चक्रवर्ती’ की उपाधि से विभूषित कर गौरवान्वित है।
17वीं सदी के महान् तपस्वी आचार्य श्री आदिसागर जी अंकलीकर महामुनिराज की आचार्य परम्परा में गणाचार्य श्री विराग सागर जी मुनिराज के परम प्रभावी शिष्य श्रमणाचार्य भावलिंगी संत श्री विमर्श सागर जी मुनिराज वर्तमान श्रमण साहित्यकारों में सर्वोपरि हैं। आप अद्वितीय प्रतिभा के धनी हैं। पंथवाद से दूर एक कुशल अनुशासक हैं। और विभिन्न साहित्य की अभिधाओं के कुशल शिल्पी हैं। श्रमण संस्कृति के चतुर्विध संघ के स्वामी हैं, आर्ष परम्परा के पक्षधर, श्रेष्ठ श्रमणाचार्य हैं।
पूज्य आचार्य श्री जी विशाल श्रमण संघ के नायक होते हुये भी अपनी संयम साधना के प्रति सचेत रहते हैं। आपका आदर्शमयी जीवन, संयम साधना, सहनशीलता, सहलता, वात्सल्यता अनुकरणीय है। विशाल संघ का संचालन करते हुये आप निराकुल रहते हैं। सहजता आपके जीवन का अभिन्न अंग हैं। आप सर्वदा निस्पृह और निर्पेक्ष भाव से साधना के पथ पर अविराम गति से बढ़ते हुये अपने जीवन को उत्कृष्टता प्रदान कर रहे हैं। साथ ही अपने साधक शिष्यों पर वात्सल्य और स्नेह की वर्षा करते हुये साधना की उच्च से उच्चतर मंजिल तक पहुँचाने में सहयोग करते हैं, प्रतिभा सम्पन्न बनाते हैं। पूज्य आचार्य श्री जी की निर्दोष चर्या आगमानुकूल है आपकी चर्या और अनुशासन से प्रभावित होकर नगर की सम्पूर्ण दिगम्बर जैन समाज पूज्य आचार्य श्री जी को स्वर्णिम विमर्श उत्सव के इस महाआयोजन पर “कुशल अनुशासक” के अलंकरण से अलंकृत गौरवान्वित है।
भारतीय संस्कृति में अनेक साधकों का जन्म हुआ है। आचार्य श्री आदिसागर जी अंकलीकर मुनिराज की अग्रणी परम्परा में गणाचार्य श्री विराग सागर जी मुनिराज के परम शिष्य आचार्य श्री विमर्श सागर जी मुनिराज विशुद्ध चर्या से सम्पन्न हैं। आपकी कठोर चर्या, प्रवचन कला व्यक्ति के आत्मोन्नति तथा गुणोत्कर्ष का मार्ग प्रशस्त करती है।
पूज्य आचार्य श्री अन्तर्मुखी दिव्य महापुरुष हैं। आत्म चिन्तन, आत्म मनन् और आत्म ध्यान में रमण करते हैं। आपका चिन्तन, काव्य कला, हृदय स्पर्शी देशना श्रावकों के जीवन में ऊर्जा का संचार करके आत्मा को परमात्मा बनने का मार्ग प्रशस्त करती है। पूज्य आचार्य श्री विमर्श सागर जी मुनिराज अलौकिक व्यक्तित्व वाले आत्म साधक हैं। आपने अपना आत्मोकर्ष करते हुये वीर प्रभु के सिद्धान्तों को आत्मसात किया है। पूर्वाचार्यों द्वारा रचित आगम ग्रन्थों का तलस्पर्शी अध्ययन कर उनका निरन्तर चिन्तन- मनन् करते हुये प्रवचनात्मक शैली में टीकाएँ की हैं। योगसार ग्रन्थ पर आपने प्राकृत भाषा में टीका सृजित कर एक कीर्तिमान स्थापित किया है।
आत्मानुशासन पूज्य आचार्य श्री जी स्वाध्याय सागर के रसिक अध्येता हैं। आत्महितार्थ आगमानुसार चर्या में अनुरक्त हैं। इसलिए आप आत्मानुशासक हैं। आपका उदात्त अन्तःकरण से युक्त होना, अत्यन्त गम्भीर होना, सुस्थिर चित्त होना, सहनशीलता, क्षमाशीलता, निराभिमान, व्यवहार कुशलता आदि अनेक विध गुण आपके व्यक्तित्व को दिव्यता से परिपूर्ण बनाते हैं। आपके हृदय के कण-कण में आशीर्वाद के उदात्त भाव और भव्य भावनाएँ भरी हुई हैं। आप भव्य जीवों को उच्च से उच्चतर बनने एवं बनाने की प्रेरणा प्रदान कर रहे हैं।
आपकी यह उच्चतर सन्मार्ग दर्शक भावनाओं से प्रभावित होकर नगर की समस्त जैन समाज इस “स्वर्णिम विमर्श उत्सव” के पावन अवसर पर पूज्य आचार्य श्री जी को ‘आत्मान्वेषी साधक’ अलंकरण से अलंकृत कर गौरवान्वित है।
जिस प्रकार शरीर साधन के लिए भोजन आवश्यक है, उसी प्रकार मानव के मानसिक आहार के लिए काव्य। अतः जीवन के सात्विक एवं सर्वांगीण विकास के लिए काव्य की वरीयता अपरिहार्य है। “जीवन है पानी की बूँद” (महाकाव्य) जैसे युगचेता काव्यों के जनक परम पूज्य श्रमणाचार्य श्री 108 विमर्श सागर जी मुनिराज काव्य जगत् के शिरोमणि आचार्य हैं। पूज्य श्रमणाचार्य श्री जी के काव्य में मानव अपने जीवन तत्त्वों, संघर्षों और आनन्द की सौन्दर्य सृष्टि को तरंगित हुआ देखता है। तब इस रूप में काव्य चार कदम और आगे बढ़कर प्रस्फुटित होता है। पूज्य श्रमणाचार्य श्री जी के काव्यों में जीवन का सर्वांगीण निरुपण होता है, काव्य के तार-तार में, अंश-अंश में जीवन की अनुभूतियाँ गुँथी होती हैं। पूज्य श्री के काव्य नियति कृत नियमों से उनमुक्त हैं, अतः पूज्य श्री स्व-रुचि से काव्य जगत् की सृष्टि करते हैं। यह काव्य समग्र आनन्द से परिपूरित होते हैं, हलादैकमयी हैं। किसी अन्य पर आश्रित नहीं, इसलिए अनन्य परतंत्र हैं। पूज्य श्री के विविध गुणान्वित काव्य अभूतानंद प्रदायक हैं। जो मानव हृदय के उस अन्तः क्षेत्र को प्रकाशित करते हैं, जहाँ शशि-रवि तक की गति नहीं।
कवि मनीषी पूज्य श्री को इस स्वर्णिम विमर्श उत्सव के पावन प्रसंग पर समाज अपनी विनयांजलि अर्पित करते हुये “काव्य चक्रवर्ती” अलंकरण से विभूषित करती है।
विश्व वंदनीय श्रमण संस्कृति के देदीप्यमान नक्षत्र परम पूज्य आचार्य श्री आदिसागर जी अंकलीकर महामुनिराज की गौरवशाली परम्परा के दिव्य-दिवाकर, श्रमण शिरोमणि, सूरिगच्छाचार्य, गणाचार्य श्री विराग सागर जी मुनिराज के परम प्रभावक शिष्य राष्ट्रसंत, आहार जी के छोटे बाबा, विमर्श लिपि के सृजेता, आदर्श महाकवि, भावलिंगी संत परम पूज्य श्रमणाचार्य श्री विमर्शसागर जी मुनिराज का आदर्शमयी जीवन अनुकरणीय है।
आपने अपनी अनवरत साधना से जीवन की कलात्मकता को भारतीय संस्कृति के अनुरूप अभिव्यक्त किया है। धर्म, दर्शन, कर्म, संस्कृति तथा अध्यात्म का पावन पंचामृत आपकी वाणी से निःसृत होता है। आप वह पारस कवि हैं जो अयस् लोहे को स्वर्ण बना देते हैं और पुनः अलंकार निर्मित कर तथा उनमें नग जड़ित कर वाग्भक्तों के कण्ठों को सुशोभित करते हैं। इस धरातल पर कवि स्रष्टा आप अपनी प्रतिभा वाणी लेखनी की तूलिका से शब्दार्थ में ऐसे रंग भरते हैं कि जनमानस तरंगित हो जाता है और आत्मा आह्लाद सहित शान्ति का अनुभव करती है।
पूज्य आचार्य श्री जी जब किसी वस्तु को एकाग्रचित्त होकर निहारते तो ऐसा लगता कि उच्च कोटि का साधक कल्पना लोक में खोकर अपनी किसी नवीन काव्य रचना की कल्पना सजो रहे हों या फिर कोई महान् योग साधक अपनी योग साधना के द्वारा आत्म साक्षात्कार के रहस्यों को साक्षात् कर रहा हो। पूज्य आचार्य श्री जी के सरल व सौम्य व्यवहार से प्रभावित होकर नगर की समस्त दिगम्बर जैन समाज स्वर्णिम विमर्श उत्सव के इस महामहोत्सव पर अपनी विनयांजलि के पुष्प पूज्य गुरुवर के श्री चरणों में समर्पित करते हुए पूज्य आचार्य श्री जी को “बहुभाषा कवि” अलंकरण से अलंकृत कर समस्त नगरवासी गौरवान्वित हैं।
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परम पूज्य दिगम्बराचार्य श्री 108 आदिसागर जी अंकलीकर महामुनिराज की गौरवशाली महान् परम्परा में सूरिगच्छाचार्य गणाचार्य श्री विराग सागर जी मुनिराज के परम प्रभावक शिष्य श्रमणाचार्य भावलिंगी संत, राष्ट्रकवि, आहार जी के छोटे बाबा, विमर्श लिपि के सृजेता, चतुर्विध संघ के नायक, जतारा नगर गौरव परम पूज्य श्री विमर्श सागर जी मुनिराज जिनशासन की निरन्तर प्रभावना कर रहे हैं।
कवि हृदय पूज्य श्रमणाचार्य श्री विमर्श सागर जी मुनिराज की मधुर वाणी से निर्धारित काव्य रचना सुनकर श्रोतागण मंत्रमुग्ध हो जाते हैं। जो एक बार आपकी वाणी को सुनता है तो आपका ही हो जाता है और काव्य रचना गुनगुनाने लगता है। पूज्य आचार्य श्री जी विद्वान हैं, वक्ता हैं, लेखक हैं, चिन्तक हैं, कवि हैं, अनेक भाषाविद् हैं, अन्वेषक हैं, विश्वस्त हैं, भक्त हैं, समर्पित हैं। पूज्य आचार्य श्री हिन्दी प्रान्तों की पद यात्रा काफी समय से कर रहे हैं। हिन्दी, अंग्रेजी, संस्कृत, प्राकृत आदि भाषाओं का आपको ज्ञान है। पूज्य आचार्य श्री काव्य सृजन कला में निपुण हैं। तत्क्षण अपनी तीक्ष्ण प्रज्ञा से प्रकृति वस्तु या अन्य कोई भी दृश्य को देखकर आप काव्य रचना कर देते हैं। पूज्य आचार्य श्री जी अपने काव्यों में किसी वस्तु के स्थूल रूप पर नहीं अपितु उसके सूक्ष्म रूप तक जाने की सहज प्रवृत्ति का प्रयोग कर काव्य रचना करते हैं, जो मानव के हृदय तंत्र को झंकृत करने वाले होते हैं।
पूज्य आचार्य श्री जी के विलक्षण व अचल गति से उत्तम विचारों व काव्य रचना से नगरवासियों के हृदय कमल पर हर्षवर्धन होने लगा, आगम मंथन होने लगा ‘स्वर्णिम विमर्श उत्सव’ के पावन पुनीत अवसर पर स्थिर चित्त मन में पदम खिल उठे और मन ही मन आत्म जागृति हुई, वीतराग की धारा में विराग बन के ज्ञानदीप जलाने की।
समस्त नगरवासियों ने स्वर्णिम विमर्श उत्सव के इस मंगलोत्सव पर पूज्य गुरुवर के पावन श्री चरणों में समर्पित होकर पूज्य गुरुवर को “आशु कवि” अलंकरण से अलंकृत कर समस्त समाज गौरवान्वित है।
परम पूज्य भावलिंगी संत श्रमणाचार्य श्री विमर्श सागर जी मुनिराज तपस्वी, बचस्वी, वर्चस्वी, तेजस्वी, सुविख्यात, आध्यात्मिक साधक हैं। अध्यात्म साधना गमन के वे एक ऐसे जाज्वल्यमान सूर्य हैं, जो तप-त्याग के दिव्य आलोक, प्रखर प्रकाश से जैन समाज को आलोकित कर रहे हैं। आप दिगम्बर श्रमणाचार्य हैं। आपकी आगम निष्ठा और आचार निष्ठा और आचार निष्ठा जब मुखर हो उठी तब आपने समाज की विभक्त और खण्डित मानसिकता को एकता के सूत्र में बाँधने के लिए ‘जिनागम पंथ जयवंत हो’ का सूत्र समाज को दिया।
पूज्य आचार्य श्री जी ने व्यक्तिगत हितों और आग्रह से ऊपर उठकर, जैन समाज की छवि को साफ-सुथरा बनाने, अनेकता में एकता स्थापित करने और उदार दृष्टि से समाज को एकरूपता में लाने का प्रयास किया वह स्तुत्य है, सराहनीय है।
पूज्य आचार्य श्री का शुद्ध एवं व्यापक दृष्टि से समाज में एकता और सामंजस्य स्थापित करने का लक्ष्य समाज के सामने आया तो दिगम्बर जैन समाज ने पूज्य आचार्य श्री जी को स्वर्णिम विमर्श उत्सव के पावन अवसर पर “जैन एकता के सजग प्रहरी” अलंकरण से अलंकृत कर गौरवता का अनुभव किया।