चींटियों की रक्षा का संकल्प !!
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प्रसंग पूज्य गुरुदेव की मुनि अवस्था का है,
दिगम्बर जैन साधक की मस्ती अनोखी ही हुआ करती है, एक आजाद पक्षी की तरह कभी किसी डगर तो कभी किसी दूसरी डगर। कोई पुण्यात्मा श्रावक साथ हुआ तो ठीक अन्यथा अपना पिच्छि-कमंडल तो साथ है ही,
ऐसा ही एक प्रसंग बमीठा से पन्ना (म. प्र.) जाते हुए बना, पूज्य गुरुदेव एवं साथ में थे मात्र मुनि विनर्घसागर। पूर्व दिन डूबने का समय था अतः मुनिवर पहाड़ से उतरते हुए मेनरोड पर आ गए, वहाँ एक बड़ा होटल था जिसके चारों ओर 100-200 फुट तक खाली मैदान था, मगर पास में कोई गाँव नहीं था। मुनिद्वय वहीं जमीन पर बैठ गए और प्रतिक्रमण करने लगे।
तब तक खबर गाँव तक पहुँच गई कि होटल के मैदान में नग्न साधु बैठे हैं, अतः बच्चे तो बच्चे, बड़े लोग भी दौड़े चले आए साधुओं को देखने। जब विमर्शसागर जी का प्रतिक्रमण पूर्ण हो गया,
तो एक व्यक्ति बोला- ‘महाराज आप लोगों के साथ कोई व्यवस्था बनाने वाला नहीं है?’
गुरुदेव – भैया, हमारी व्यवस्था तो हमारी पीछी और कमंडलू से बन जाती है जो हमारे साथ हैं।
– मेरे कहने का मतलब यह कि आपके भोजन, पानी, चाय, दूध की व्यवस्था के लिए कौन है ?
– बंधु, हम लोग 24 घंटे में एक बार आहारचर्या करते हैं। चाय कभी लेते नहीं, रात्रिभोजन करते नहीं।
– यदि आपको किसी वस्तु की आवश्यकता हो तो हमें सेवा का अवसर दें।
– ऐसा, आपके यहाँ दो तख्त हों तो ला दीजिए।
– ‘हाँ! हाँ! हैं महाराज, अभी लाए देते हैं।’ चार-छह बलिष्ठ लड़के तख्त लेने चले गए, शेष लोग खड़े रहे ओर टुकुर-टुकुर साधुओं को देखते रहे। थोड़ी देर के बाद लोग तख्त लेकर आ गए, सबने मिलकर मैदान में लगा दिए। फिर एक व्यक्ति ने गुरुवर से पूछा- ‘आप लोग यहाँ से कहाँ जायेंगे ?’
– हम लोग कल सुबह 5.30 से 6 बजे के बीच पन्ना के लिए विहार करेंगे, आप लोग तख्त ले जाना।
– पन्ना के जैनियों को आपके आगमन की जानकारी है क्या ?
– शायद नहीं।
– तो क्या हम लोग फोन कर दें, हमारे पास एक सेठजी का नम्बर है।
गुरुवर ने हँसकर आशीर्वाद दिया, बोले- ‘जैसा आप लोग उचित समझें। अब हम लोग ध्यान (सामायिक) करेंगे। आप लोग अपने घरों को जा सकते हैं।
वे सब चले गए। अजैन होकर, जैन संतों के प्रति उनका लगाव ‘सर्व धर्म समभाव’ का परिचय दे रहा था। उनकी सेवाभक्ति और सहयोग भावना को देखते हुए-मुनिवर विमर्शसागर जी की कृति ‘ज़ाहिद की ग़ज़लें’ की कुछ पंक्तियाँ चमकने लगीं-
तीर्थ होगा वतन हमारा ये,
गंगा जमना से जो मिल जायेंगे।
हर तरफ होगा अमन चैन तभी,
दिल जो अश्कों से पिघल जायेंगे।
ग्रामीणों ने पन्नावासी सेठ को फोन कर जानकारी दे दी फलतः वहाँ से कुछ युवक रात में ही गुरुवर के समक्ष पहुँच गए। विनयपूर्वक नमोस्तु के बाद उन्होंने अपने साथ लाए घी से मुनिद्वय की वैयावृत्ति शुरू कर दी।
तीव्र गर्मी और थकान के कारण गुरुवर तख़्त पर लेटे हुए थे, भक्तों को देखकर भी, व्यर्थ मौनवार्ता न करना पड़े अतः गुरुवर लेटे रहे, भक्त सेवा करने लगे। थोड़ी देर बाद महाराज ने मना कर दिया, तब वे भक्त आज्ञा लेकर लौट गए।
मुनि विनर्घसागर जी ने बैठकर वैयावृत्ति कराई थी अतः जाते-जाते भक्तगण उनके हाथ-पैर पर लगे घी को पोंछना नहीं भूले। किन्तु विमर्शसागर जी का घी पोंछना भूल गए थे। वे तो चले गए किन्तु घी की सुगंध पाकर दूसरे भक्तों का समूह विमर्शसागर जी की सेवा में जा पहुँचा। जब उन भक्तों की संख्या बढ़ गई तो गुरुवर को आभास हुआ कि शरीर पर चींटियाँ चल रही हैं और भक्तिपूर्वक अपना आहार भी ले रहे हैं। वे सावधानीपूर्वक उठे, पद्मासन में बैठे फिर पिच्छिका से मार्जन करने लगे। ध्यान रख रहे थे कि किसी चींटी को कष्ट न हो। फिर वे लेट न सके। बैठे-बैठे सामायिक करते रहे।
सुबह जब विनर्घसागर जी ने देखा तो भारी आश्चर्य प्रकट किया, अपनी पीछी से सावधानीपूर्वक शेष चींटियों को अलग किया। देखा शरीर पर कतिपय ददरे पड़ गए थे।
तब उन्होंने कहा-‘मुनिवर चींटियों ने आपकी देह की शरण ली थी, अतः कष्ट नहीं दिया।’
मनोविनोद के भाव से विमर्शसागर जी ने विनर्घसागर जी से मुस्काते हुए कहा- ‘आप थोड़ी देर बैठ गए तो रात्रि में विश्राम मिल गया। मैं थोड़ी देर लेट गया तो रात्रि भर बैठना पड़ा।’
यह सुनकर मुनिवर हँस पड़े। उन्होनें प्रातःकालीन क्रियायें और वंदनादि सम्पन्न की फिर विहार कर गए।