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श्री महावीराष्टक स्तोत्र

(पद्यानुवाद-आचार्यश्री विमर्शसागर जी महाराज)
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व्यय उत्पाद – धौव्यमय सब ही भाव चराचर अन्तरहित,
दर्पण सम चैतन्यज्ञान में होते युगपत् प्रतिबिम्बित ।
जगप्रत्यक्षी मोक्षमार्ग को प्रगट कर रहे सूर्य समान,
मेरे लिये नयनपथगामी होवें महावीर भगवान् ॥ 1 ॥
दोनों नयन कमल जिनके निस्पंद लालिमाहीन अहा!,
अंतर-बाहर क्रोध न कणभर जन-जन को यह प्रगट किया।
परमशान्तिमय मूरत जिनकी है अति-निर्मल आभावान,
मेरे लिये नयनपथगामी होवें महावीर भगवान् ॥ 2 ॥
वन्दन करते देवगणों के मुकुटमणि झिलमिल-झिलमिल,
आभा से हो उठे सुशोभित, कांतिमान तव चरण-कमल।
भवज्वाला के शमन हेतु जग-जन को जल-सम जिनका ध्यान,
मेरे लिये नयनपथगामी होवें महावीर भगवान् ॥ 3 ॥
जब अर्चा के भाव संजो शुभ प्रमुदितमन मेंढक इह-लोक,
अणिमा-महिमा गुण युत सुखनिधि, पा सकता क्षण में दिविलोक ।
तव सद्भक्त मोक्षसुख पावें इसमें क्या आश्चर्य महान् ?
मेरे लिये नयनपथगामी होवें महावीर भगवान् ॥ 4 ॥
स्वर्णाभा सी दीप्ति देह फिर भी विदेह हे ज्ञान निकर,
आत्मनैक पर एक जन्मगत हो सुत सिद्धारथ नृपवर ।
कहलाते भव-राग-विगत प्रभु हो, बहिरंग लक्ष्मीवान्,
मेरे लिए नयनपथगामी होवें महावीर भगवान् ॥ 5 ॥
जिनके शुभ वचनों की गंगा नाना नय कल्लोल विमल,
विपुलज्ञान जल से जग जन का जो करती अभिषेक अमल।
परिचित हैं बुधजन हंसों से संप्रति में यह गंग महान,
मेरे लिये नयनपथगामी होवें महावीर भगवान् ॥ 6 ॥
मदन महाभट चंडवेग युत् दुर्निवार त्रयलोकजयी,
निजबल से कौमार-दशा में जीता हुये काम-विजयी।
नित्यानन्द-स्वभावी शिवपद राज प्राप्ति का ध्येय महान,
मेरे लिए नयनपथगामी होवें महावीर भगवान् ॥ 7 ॥
मोह रोग प्रशमन करने हो वैद्य अकारण नित तत्पर,
हे निरपेक्ष ! परम बन्धु ! हे विदित महिम ! हे मंगलकर !
भवभीरु साधकजन को शुभ शरण आप उत्तम गुणवान्,
मेरे लिये नयनपथगामी होवें महावीर भगवान् ॥8॥
महावीर भगवान् का आठपद्य गुणगान,
पढ़े सुने जो भाव से वह पाता शिवथान ।
‘भागचन्द्र” द्वारा रचित भक्ति भाव प्रधान,
है “विमर्श” अंतिम यही मिट जाये अज्ञान ॥9॥
(इति श्री महावीराष्टक स्तोत्र)

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