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लघु स्वयंभू स्तोत्र

(पद्यानुवाद-आचार्यश्री विमर्शसागर जी महाराज)
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स्वयंबुद्ध जो स्वयंबोध से मार्ग बताया जीवन का।
हर्षित हुये सभी जन-मन जो मिला ज्ञान धन-अर्जन का ॥
दिया भविकजन को शिवकारी मोक्षमार्ग का संबोधन ।
आदि विधाता ! आदिनाथ के चरण युगल में नित्य नमन ॥1॥
हर्षित इन्द्र क्षीर सागर से प्रासुक सुरभित जल लाया।
मेरुगिरि पर हे जिनेन्द्र ! अभिषेक किया अति हर्षाया ॥
मोहजयी ! हे मदनजयी ! जग जन को सुखकारी तव नाम।
अजितनाथ! अर्जित अघनासन शुद्धभाव से करूँ प्रणाम ॥2॥
शुक्लध्यान में लीन हुये प्रभु उपजा महा अचिन्त्य प्रभाव।
बँधे हुये सब घाति-अघाति-कर्मद्रव्य का हुआ अभाव ॥
महा मोक्षपद पानेवाले हरो विपद मम संभवनाथ।
तव पद-पंकज का अनुरागी सदा झुकाऊँ अपना माथ ॥3॥
भूमण्डल पर उस रजनी का पिछला पहर महान हुआ।
माता को जब शुभ-शुभ सोलह स्वप्नों का आह्वान हुआ ।।
पितु ने परमगुरु होगा यह शुभफल-स्वप्न महान् कहा।
अभिनंदन जिन! का अभिवंदन हर्षभाव से करूँ सदा ॥4॥
जीत लिये सब महाधुरन्धर कुमतवादियों के कुविवाद।
नय-प्रमाण वचनों के द्वारा स्याद्वाद का गूँजा नाद ॥
बतलाया माहात्म्य विश्व को जैनधर्म का दे उपहार।
सुमतिनाथ जिन! हमें सुमति दो करता नित नत हो नवकार॥5॥
जब सौधर्म इन्द्र ने जाना अवधिज्ञान से प्रभु अवतार।
धनपति को आदेश दिया बढ़ सात कदम कीना स्वीकार ॥
पन्द्रह मास रतन की वर्षा पितु के अँगना हुई अपार ।
पद्मप्रभ ! तव पाद पद्म का भ्रमर बना करता नवकार ॥6॥
जिनकी हितकर दिव्यध्वनि सुन अहो! इन्द्र, धरणेन्द्र, नरेन्द्र।
अपने हृदय करें नित धारण प्रभु सम हम भी बनें जितेन्द्र ॥
द्वादशसभा मध्य में जिनका हुआ प्रकाशित आतम ज्ञान।
नाच रहा मन मोर चरण में वंदन हे सुपार्श्व भगवान् ॥7॥
सुन्दर-सुन्दर प्रातिहार्य वसु जो अतिशय को प्राप्त अहा।
अठदस दोष कोष नश प्रभुजी सुगुण छियालीस प्राप्त महा॥
सदा प्रकाशित ज्ञानदीप से मोहमहातम किया विनाश।
चाहूँ चारु चरण चंद्रप्रभ ! शुचि भावों से प्रणत सुदास ॥8 ॥
पाँच-महाव्रत समिति गुप्तित्रय दिया सभा में प्रभु उपदेश।
भवसागर में भ्रमने वाले भविजन का मिट गया कलेश ॥
संवर सहित निर्जरा मंगल द्वादश विध तप किया प्रकाश।
पुष्पदंत पद पुष्प अर्चता पाने निज चैतन्य विलास ॥9॥
उत्तम-क्षमा-मार्दव-आर्जव शौच सत्य-संयम-तपधर्म ।
त्याग-अकिंचन-ब्रह्मचर्य दस-विध धर्मों का जाना मर्म ॥
व्रत बंधन स्वीकार बुद्धि से मोक्ष मार्ग के नायक आप।
खुली स्वर्णबेड़ी शीतलजिन! चरण नमूँ मेदूँभव-ताप ॥10॥
मंगलकारी चार-संघ वा जग जन को इस वसुधा पर।
नाश दिया है क्रोध सदा ही शान्तचित्त हो हे प्रभुवर ॥
दिव्यदेशना के विधान से द्वादशांग-श्रुत का उपदेश।
चरण नमूँ निश्रेयस् पाने हे श्रेयांस जिन! हे अखिलेश!॥11॥
मुक्ति अंगना वरण हेतु जो रचा प्रभु ने बड़ा विशाल।
रत्नत्रय का मुकुट मनोहर सदा सुशोभित गुण मणिमाल ॥
कण्ठालिंगन पाया जिसने धन्य धन्य वह मुक्ति रमा।
वासुपूज्य जिन! चरण पूजता वंदन सिर को नमा-नमा॥12॥
परमध्यान-व्रतधारी होकर, भवि को हित उपदेश दिया।
हे ज्ञानी ! परमात्म-स्वरूपी मिथ्यातम उच्छेद किया ॥
इन्द्रिय सुख है सुखाभास यह जाना शिवसुख पाया आप।
विमलनाथ! तव चरण नमूँ नित मिट जाये मम भव-संताप॥13॥
दूर किया है सर्व परिग्रह बाह्याभ्यन्तर विविध प्रकार।
मूर्च्छाभाव तिरोहित करके हे प्रभु! आप हुये अविकार।
भविजन कोहित-मार्ग दिखाया पाया मुक्ति-महल महान।
हे अनंत जिन! चरण नमूँ नित पाऊँ सदानन्त-सुखज्ञान॥14॥
सात-तत्व छह-द्रव्य प्रकाशे नव पदार्थ पन-अस्तिकाय ।
युक्ति से निर्णीत किये हैं काल द्रव्य को कहा अकाय ॥
स्वयंबोध से किया प्रकाशित लोकाकाश-अलोकाकाश ।
धर्मनाथ! नित चरण नमूँ तव पाने धर्म-सुरभि अविनाश॥15॥
जीत लिया षट्खण्ड हुआ तब पंचम-चक्रवर्ति उद्घोष ।
नव-निधियाँ चौदह-रत्नों के स्वामी आप महागुण-कोष ॥
द्वादश-कामदेव मनहारी सोलहवें तीर्थेश महान ।
शांतिनाथ जिन! चरण नमूँनित पाऊँ शाश्वत शांति निधान।।16॥
हर्षित होते कभी नहीं जो संस्तुति से गुणगानों से।
क्रोध-भाव छू सका ना कभी निन्दादि अपमानों से ॥
उत्तम-शील-व्रतों को ध्याकर परमब्रह्म-पद को पाया।
कुंथुनाथ तव चरण-वंदना-कर मेरा मन हर्षाया ॥ 17 ॥
समवशरण में हुये विराजित जो सामान्य केवली-जिन।
संस्तुत वंदित हुये कभी ना उनके द्वारा हे स्वामिन् ॥
अन्तर्गण की पूर्ति हेतु है जो सेवित आदर को प्राप्त।
अरहनाथ! तव चरण नमूँनित पाने निज पद तुम सम आप्त।।18॥
पूरब-भव में रत्नत्रय व्रत की शुचिता का पा आलोक ।
मन वच काय विशुद्धि से निज में निज आतम लिया विलोक॥
पावन पूर्ण-ब्रह्मव्रत जिनने इस भव में अवधार लिया।
मोहमल्ल मद दलन हेतु नुति मल्लिनाथ! तव चरण हिया॥19॥
महाभाग हो हे स्वामिन् ! जो हुये स्वयं ही वैरागी।
ब्रह्मर्षि देवों ने आकर संस्तुति की अतिशयकारी ॥
नमः सिद्ध कह स्वयं लोंचकर धार लिये मुनिपद के व्रत।
नित नत हो नुति करता हूँ तव चरणों की हे मुनिसुव्रत!॥20॥
विद्यावन्त तीर्थ के कर्ता अहोभाग प्रभु लिया निहार।
पुलकित तन-मन विधि पड़गाहन भक्तिभाव से दिया आहार॥
महाभाग नृपघर रत्नों की वर्षा पंचाश्चर्य महान ।
नमिनाथ जिनवर की करता नय-प्रमाण से संस्तुति-गान॥21॥
निबल-जीव बन्धन में देखे दयाभाव प्रगटा उर में।
हाय-हाय धिक् विषय-भोग तज राजुल रथ-मोड़ा गिरि में ॥
हुई मुक्ति, जग में ना आना रहा प्रयोजन एक महान।
चरण नमूँ नित आन पधारो मम उर नेमिनाथ भगवान् ॥22॥
पार्श्वनाथ जिन ! धर्मध्यान औ शुक्लध्यान में थे लवलीन।
कमठ किया उपसर्ग भयानक महावृष्टि-वायु-अग्नि ॥
दूर किया उपसर्ग प्रभु का फण मण्डप रचकर धरणेन्द्र।
शिवसुख पाऊँबलि-बलि जाऊँ चरण शरण दो पार्श्वजिनेन्द्र॥23॥
यह भवसिंधु महादुखकारी अघ का कारण कहें जिनेश ।
देखा सब भवि जीवों को जो डूब रहे पा रहे कलेश ॥
धर्मपोत का अवलम्बन दे खींच लिया है अपनी ओर ।
वर्द्धमान जिन! चरण नमूँ द्वय देना भव सागर का छोर24॥

श्री सर्वज्ञदेव कृत हितकर दिव्यदेशना उपकारी,
दसविध-धर्म त्रियोग सहित धारण करते जो नरनारी।
भविजन विमल गुणानुवाद से पुष्पांजलि नित करें प्रदान,
सकल स्वर्ग वा मोक्ष-लक्ष्मी करती आलिंगन नित मान॥25॥
तीर्थंकर चौबीस का, रचा पद्य अनुवाद ।
है “विमर्श” अंतिम यही मिले मुक्ति प्रासाद ।।
(इति श्री लघु स्वयंभु स्तोत्र)

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