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श्री गोम्मटेस स्तुति

(पद्यानुवाद-आचार्यश्री विमर्शसागर जी महाराज)
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नीलकमल दल सम अति सुंदर सुखकर मनहर युगल-नयन।
विकसित पूर्ण शशांकबिम्ब सम जो अतिशय कमनीय वदन।
नम्र नासिका अहा! जीतती चंपक सुमनस छबि अभिराम।
गोम्मटेस तव युगल-चरण में नतमस्तक नित करूँ प्रणाम ॥ 1 ॥
स्वच्छ विमल उज्ज्वल जल सम छबि वाले गोल-कपोल अहा !
नर्तन करते कर्णपाश जिनके विशाल कन्धों पर आ।
गज सुण्डा सम बाहुदण्ड द्वय शोभित अति नभसम शुचि-धाम ।
गोम्मटेस तव युगल-चरण में नतमस्तक नित करूँ प्रणाम ॥ 2 ॥
दिव्य शंख की महासौम्य छबि जीत रही ग्रीवा कमनीय।
निश्चल अचल मेरु सम जिनका मध्यभाग जो अतिरमणीय।
हिमगिरि सा उन्नत विस्तृत तव बाहुशिरस् अनुपम अभिराम।
गोम्मटेस तव युगल-चरण में नतमस्तक नित करूँ प्रणाम ॥3 ॥
विंध्याचल के अग्र शिखर पर तप से सदा प्रकाशित आप।
सब शुद्धात्म मुमुक्षुजन के शिखामणि हे प्रखर प्रताप।
त्रिभुवन को आनंद प्रदाता पूर्ण चाँद सम हे गुणधाम।
गोम्मटेस तव युगल-चरण में नतमस्तक नित करूँ प्रणाम ॥ 4 ॥
लिपट गईं माधवी लतायें नख-शिख तक तव तन सुविशाल ।
भविजन को तिहुँलोकों में समकल्पवृक्ष हे जिन ! तवख्याल ।
महाऋद्धियुत् देवगणों से अर्चित हैं द्वय-चरण ललाम।
गोम्मटेस तव युगल-चरण में नतमस्तक ! नित करूँ प्रणाम ॥ 5 ॥
अहा ! दिगम्बर रूप आपका मनभावन भय से निष्क्रान्त ।
अम्बरादि में अनासक्त मन, हे विशुद्ध ! निश्चय से शांत।
महाभयंकर विषधर से पर्शित फिर भी निष्कम्प महान ।
गोम्मटेस तव युगल-चरण में नतमस्तक नित करूँ प्रणाम ॥ 6 ॥
आशा की अभिलाषा शोषित पोषित समदृष्टि सुवितान ।
सर्वदोष के मूल मोह का नाश किया पाया निज ध्यान।
हे निष्कांक्ष ! विरागभाव युत भरत भ्रात में शल्य विराम।
गोम्मटेस तव युगल-चरण में नतमस्तक नित करूँ प्रणाम ॥ 7 ॥
जो उपाधि से पूर्ण रहित धन-कंचन सकल-संग से दूर।
जो समत्व से अहा ! अलंकृत मोह-महामद जेता शूर।
एक वर्ष तक निराहार उपवास योग धारा अविराम ।
गोम्मटेस तव युगल-चरण में नतमस्तक नित करूँ प्रणाम ॥8 ॥
गोम्मटेस अष्टक् अहा ! संस्तुतिमय गुणगान ।
‘नेमिचंद आचार्य’ ने प्राकृत किया बखान ॥ 1 ॥
गोम्मटेस थुति का किया, आठ पद्य अनुवाद ।
गोम्मटेस की भक्ति से, उमड़ा जब आह्लाद ॥ 2 ॥
गोम्मटेस अष्टक अहा, देता नित आनन्द ।
एक यही शुभ भावना, मेंट सकूँ भव फन्द ॥3॥
गोम्मटेस तव चरण में, नित नुति करूँ प्रणाम।
है “विमर्श” अंतिम यही, प्राप्त करूँ शिवधाम ॥4॥
(इतिश्री गोम्मटेस स्तुति)

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