Debate on Syadvada | स्यादवाद दोष परिहार
स्याद्गाद का क्या अर्थ है व उसका दर्शन के क्षेत्र में कितना महत्त्व है, यह दर्शाने के लिये इस पर आने वाले कुछ आरोपों का निराकरण (Debate on Syadvada) करना चाहते हैं।
स्याद्वाद के वास्तविक अर्थ से अपरिचित बड़े-बड़े दार्शनिक भी मिथ्या आरोप लगाने से नहीं चूकते है। उन्होंने अज्ञानवश ऐसा किया या जानकर, यह कहना कठिन है। धर्मकीर्ति ने स्याद्वाद को पागलों का प्रलाप कहा और जैनों को निर्लज्ज बताया।
इसी प्रकार शंकर ने भी स्थाद्राद पर पागलपन का आरोप लगाया कि एक ही श्वास उष्ण और शीत नहीं हो सकता।
भेद और अभेद, नित्यता और अनित्यता, यथार्थता और अयथार्थता, सत् और असत्, अन्धकार और प्रकाश की तरह एक ही काल में एक ही वस्तु में नहीं रह सकते।
इसी प्रकार के अनेक आरोप लगाए गए है। यहाँ जितने आरोप लगाये गए है अथवा लगाए जा सकते हैं, उन सब का एक-एक करके निराकरण करने का प्रयत्न करेंगे।
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Debate on Syadvada vs. Omniscience | स्याद्वाद और केवलज्ञान
दोष
स्याद्वाद को मानने वाले केवलज्ञान की सत्ता में विश्वास नहीं रख सकते, क्योंकि केवलज्ञान एकान्तरूप से पूर्ण होता है। उसकी उत्पत्ति के लिए बाद में किसी की अपेक्षा नहीं रहती।
परिहार
स्याद्वाद और केवलज्ञान में तत्त्वज्ञान की दृष्टि से कोई भेद नहीं हैं। केवली वस्तु को जिस रूप से जानेगा, स्याद्वादी भी उसे उसी रूप से जानेगा।
अन्तर यह है कि केवली जिस तत्त्व को साक्षात् प्रत्यक्ष ज्ञान से जानेगा, स्याद्वादी छद॒मस्थ उसे परोक्षरूप से श्रुतज्ञान केआधार से जानेगा।
केवलज्ञान पूर्ण होता है, इसका अर्थ यही है कि वह साक्षात् आत्मा से होता है और उस ज्ञान में किसी प्रकार की बाधा की सम्भावना नहीं है। पूर्णाता का यह अर्थ नहीं:कि वह एकान्तवादी हो गया।
तत्त्व को तो वह सापेक्ष-अनेकात्मक रूप में ही देखेगा। इतना ही नहीं, उसमें उत्पाद, व्यय और ध्रोव्य ये तीनों धर्म रहते हैं । काल जैसे पदार्थ में परिवतं॑न करता है वैसे ही. केवलज्ञान में भी परिवतंन करता हैं।
जैन दर्शन केवलज्ञान को कूटस्थनित्य नहीं मानता। किसी वस्तु की तीन अवस्थाएं भूत, वर्तमान और अनागत होती हैं। जो अवस्था आज अनागत है, वह कल वर्तमान होती है।
जो आज वर्तमान है वह कल भूत्त में परिणत होती है। केवलज्ञान आज की तीन प्रकार की अ्रवस्थाओ को आज की दृष्टि से जानता है।
कल का जानना आज से भिन्न हो जाएगा, क्योंकि आज जो वतंमान है कल वह भूत होगा और आज जो अनागत है कल वह वतंमान होगा।
यह ठीक है कि केवली तीनों कालों को जानता है, किन्तु जिस पर्याय को उसने कल भविष्य रूप से जाना था उसे आज वर्तमान रूप से जानता है। इस प्रकार काल-भेद से केवली के ज्ञान में भी भेद आता रहता है।
वस्तु की अवस्था के परिवर्तन के साथ-साथ ज्ञान की अवस्था भी.बदलतो रहती है। इसलिए केवलज्ञान भी कथंचित् अनित्य है और कदाचित नित्य भी। स्याद्वाद और केवलज्ञान में विरोध की कोई सम्भावना नहीं।
सत्य या मिथ्या
यदि प्रत्येक वस्तु कथंचित यथार्थ है और कथंचित अयथार्त तों स्यादवाद स्वयं भी कथंचित सत्य होगा और कथंचित मिथ्यां ? ऐसी स्थिति में स्यादवाद ही से तत्त्व का यथार्थ ज्ञान हो सकता है, यह कैसे कहा जा सकता है ?
स्याद्वाद तत्त्व का विश्लेषण करने की एक द्रष्टि है। अनेकात्मक तत्त्व को अनेकात्मक दृष्टि से देखने का नाम ही स्याद्वाद है, जो वस्तु जिस रूप में यथार्थ है उसे उस रूप में यथार्थ मानना और तदितर रूप में अयथार्त मानना स्यादवाद है।
यह स्वयं भी यदि किसी रूप में अयथार्थ या मिथ्या है तो वैसा मानने में कोई हर्ज नहीं । यदि हम एकान्तवादी दृष्टिकोण लें और स्याद्वाद की ओर देंखें तो वहं भी मिथ्या प्रतीत होगा। अनेकान्त दृष्टि से देखने पर स्याद्वाद सत्य प्रतीत होगा।
दोनों दृष्टियों को सामने रखते हुए हम यह कह सकते हैं कि यह कथंचित् मिथ्या है अर्थात् एकान्तदृष्टि से मिथ्या है और क्रथंचित् सत्य है अर्थात् अनेकान्तदृष्टि की अपेक्षा से सत्य है। जिसका जिस दृष्टि से जेसा प्रतिपादन हो सकता है।
स्याद्वाद एकान्तवाद के बिना नहीं रह सकता ?
दोष
स्याह्द कहता है कि प्रत्येक वस्तु या धर्म सापेक्ष है। सापेक्ष धर्मों के मूल में जब तक कोई ऐसा तत्त्व न हो, जो सब धर्मों को एक सूत्र में बाँध सके, तब तक वे धर्मं टिक ही नहीं सकते।
उन को एकता के सूत्र में बांधने वाला कोई-न-कोई तत्त्व अवश्य होना चाहिए, जो स्वयं निरपेक्ष हो । ऐसे निरपेक्ष तत्त्व की सत्ता मानने पर, स्याह्द का यह सिद्धान्त कि प्रत्येक वस्तू सापेक्ष है, खंडित हो जाता है।
परिहार
स्याद्मद जो वस्तु जैसी है, उसे वैसी ही देखने के सिद्धान्त का प्रतिपादन करता है। सब पदार्थों या धर्मो में एकता है, इसे स्याद्वाद मानता है। भिन्न-भिन्न वस्तुओं में अभेद मानना स्याद्वाद को अभीष्ट है।
यह नहीं कहता कि अनेक धर्मों में कोई एकता नहीं है। विभिन्न वस्तुओं को एक सूत्र में बांधने वाला अभेदात्मक तत्त्व अवश्य है, किन्तु ऐसे तत्त्व को मानने का यह अर्थ नहीं कि स्याह्मद एकान्तवाद हो गया।
स्याह्माद एकान्तवाद तव होता जब वह भेद का खंडन करता या अनेकता का तिरस्कार करता। अनेकता में एकता मानना स्याह्वाद को प्रिय है, किन्तु अनेकता का निषेध करके एकता को स्वीकृत करना, उसकी मर्यादा से बाहर है।
‘सर्वमेक॑ सदविश्ञेपात्’ अर्यात् सव एक है, क्योंकि सब सत् है–इस सिद्धान्त को मानने के लिए स्याह्गद तैयार है, किन्तु अनेकता का निषेध करके नहीं, अपितु उसे स्वीकृत करके।
तीर्थंकर किसे कहते है? यह अवतार से कैसे भिन्न होते है? इत्यादि प्रश्नो के उत्तर जानने के लिये Philosophy behind Teerthankar पर जाये।
विधि और निषेध परस्पर विरोधी धर्म हैं।
जिस प्रकार एक ही वस्तु नील और अनिल दोनों नहीं हो सकती, क्योंकि नीलत्व और अनीलत्व विरोधी वर्ण हैं, उसी प्रकार विधि और निषेध परस्पर विरोधी होने से एक ही वस्तु में नहीं रह सकते।
इसलिए यह कहना विरोधी है कि एक ही वस्तु भिन्न भी हैं और अभिन्न भी है, सत् भी हैं और असत् भी है, वाच्य भी है और अवाच्य भी है। जो भिन्न है वह अभिन्न कैसे हो सकतो है।
जो एक है वह एक ही है, जो अनेक है वह अनेक ही है। इसी प्रकार अन्य धर्म भी पारस्परिक विरोध सहन नहीं कर सकते । स्पाह्याद इस प्रकार के विरोधी धर्मों का एकत्र समर्थन करता है। इसलिए वह सदोष है।
प्रत्येक पदार्थ अनुभव के आधार पर इसी प्रकार का सिद्ध होता है। एक दृष्टि से वह नित्य प्रतीत होता है और दूसरी दृष्टि से अनित्य। एक दृष्टि से एक प्रतीत होता है और दूसरी दृष्टि से अनेक।
स्याद्वाद यह नहीं कहता कि जो नित्यता है वही अनित्यता हैँ या जो एकता है वही भ्रनेकता है।
नित्यता और अनित्यता, एकता और अनेकता आदि धरम परस्पर विरोधी हैं यह सत्य है, किन्तु उनका विरोध अपनी दृष्टि से है, वस्तु की दृष्टि से नहीं। वस्तु दोनों को प्राश्रय देती है। दोनों की सत्ता से ही वस्तु का स्वरूप पूर्ण होता है।
एक के आभाव में पदार्थ अधूरा है। जब एक वस्तु द्वव्यद्वष्टि से नित्य और पर्यायदृष्टी से अनित्य प्रतीत होती है तो उसमें विरोध का कोई प्रश्न ही नहीं हैं। विरोध वहाँ होता है जहाँ विरोध की प्रतीति हो।
विरोध की प्रतीति के अभाव में भी विरोध की कल्पना करना सत्य को चुनौती देना है।
सप्तभंगी
दोष
सप्तभंगी के पीछे के तीन भंग व्यर्थ हैं, क्योंकि वे केवल दो भंगों के योग से बनते हैं। इस प्रकार योग से ही संख्या बढ़ाना हो तो सात क्या अनंत भंग बन सकते हैं।
परिहार
मूलतः एक धमं को लेकर दो पक्ष विधि और निषेध बनते हैं। प्रत्येक धर्म का या तो विधान होगा या प्रतिषेध। ये दोनों भंग मुख्य हैं। बाकी के भंग विवक्षाभेद से बनते हैं।
तीसरा और चौथा दोनों भंग भी स्वतन्त्र नहीं हैं। विधि और निषेध की क्रम से विवक्षा होने पर तीसरा भंग बनता है और युगपत् विवक्षा होने पर चौथा भंग बनता है।
इसी प्रकार विधि की और युगपत् विधि और निषेध की विवक्षा होने पर पाँचवाँ भज्ज बनता है। आगे के भंगो का भी यही क्रम हैं।
यह ठीक है कि जैनाचार्यों ने सात भंगो पर ही जोर दिया और सात भंग ही क्यों होते हैं, कम या अधिक क्यों नहीं होते, इसे सिद्ध करने के लिए अनेक हेतु भी दिए, किन्तु जैनदर्शन की मौलिक समस्या सात की नहीं, दो की है।
बौद्ध दर्शन और वेदान्त में जिन चार कोटियों पर भार दिया जाता है, वह भी सप्तभंगी की तरह ही है। उसमें भी मूल रूप में दो ही कोटियाँ हैं। तीसरी और चौथी कोटि में मौलिकता नहीं है।
कोई यह कह सकता है कि दो भज्लों को भी मुख्य क्यों माना जाय, एक ही भज्ड मुख्य है । यह ठीक नहीं, क्योंकि यह हम देख चुके हैं कि वस्तु न तो सवंथा सत् या विध्यात्मक हो सकती है, न सर्वथा श्रसत् या निषेघात्मक।
विधि और निषेध दोनों रूपों में वस्तु की पूरंंता रही हुई है। न तो विधि निषेध से वलवाब् है और न निषेध विधि से शक्तिशाली है ; दोनों समान रूप से वस्तु की यथार्थता के प्रति कारण हैं।
वस्तु का पूर्णरूप देखने के लिए दोनों पक्षों की सत्ता मानना-आवश्यक हैं। इसलिए पहले के दो भज्ज मुख्य हैं।
हाँ, यदि कोई ऐसा कथन हो, जिसमें विधि और निषेध का समानरूप से प्रतिनिधित्व हो, दोनों में से किसो का भी निषेध न हो, तो उसको मुख्य मानने में जैन दर्शन को कोई आपत्ति नहीं ।
वस्तु का विश्लेषण करने पर प्रथम दो भज्ज अवश्य स्वीकृत करने पड़ते हैं।
भेद और अमेद
यदि वस्तु भेद और अभेद उभयात्मक है तो भेद का आश्रय भिन्न होगा और अभेद का आश्रय उससे भिन्न। ऐसी दशा में वस्तु की एकरूपता समाप्त हो जाएगी। एक ही वस्तु द्विरूप हो जाएगी।
यह दोष भी निराधार है। भेद और अभेद का भिन्न-भिन्न आश्नय मानने की कोई आवश्यकता नहीं। जो वस्तु भेदात्मक है वही वस्तु अभेदात्मक है।
उसका जो परिवर्तन धर्म हैं, वह भेद की प्रतीति का कारण है। उसका जो ध्रौव्य धर्म है, वह अभेद की प्रतीति का कारण है। ये दोनों धर्म अखंड वस्तु के धम हैं।
ऐसा कहना ठीक नहीं कि वस्तु का एक अंश भेद या परिवर्तन घर्म वाला है और दूसरा अंश अभेद या ध्रौव्य धर्मयुक्त है। वस्तु के टुकड़े-हुकड़े करके अनेक धर्मो की सत्ता स्वीकृत करना स्याद्वाद के अनुसार नहीं।
जब हम वस्त्र को संकोच और विकासशील कहते हैं, तब हमारा तात्पय॑ एक ही वस्त्र से होता है। वही वस्त्र संकोचशाली होता है और वही विकासशाली।
यह नहीं कि उसका एक हिस्सा संकोच धर्म वाला है और दूसरा हिस्सा विकास धर्म वाला है।
वस्तु के दो अलग अलग विभाग करके भेद और अभेद रूप दो भिन्न भिन्न धर्मों के लिए दो भिन्न भिन्न आश्चयों की कल्पना करना स्याद्वाद की मर्यादा से वाहर है। वह तो एकरूप वस्तु को ही अनेक घम्मयुक्त मानता है।