सृष्टि का परिवर्तन क्रम
!! Change order of creation !!
सृष्टि का परिवर्तन अनादिकाल से चला आ रहा है, वह कभी रुकता नहीं है। इसमें परिवर्तन किस प्रकार से होता है?
1. भरत-ऐरावत क्षेत्र में सृष्टि का क्या क्रम चलता है?
भरत एवं ऐरावत क्षेत्र के आर्यखण्डों में अवसर्पिणी एवं उत्सर्पिणी काल के दो विभाग होते हैं। जिसमें मनुष्यों एवं तिर्यच्चों की आयु, शरीर की ऊँचाई, बुद्धि, वैभव आदि घटते जाते हैं, वह अवसर्पिणी काल कहलाता है एवं जिसमें आयु, शरीर की ऊँचाई, बुद्धि, वैभव आदि बढ़ते जाते हैं वह उत्सर्पिणी काल कहलाता है।
2. एक कल्पकाल कितने वर्षों का होता है?
20 कोड़ाकोड़ी सागर का एक कल्पकाल होता है। जिसमें 10 कोड़ाकोड़ी सागर का अवसर्पिणी काल एवं 10 कोड़ाकोड़ी सागर का उत्सर्पिणी काल होता है। दोनों मिलाकर एक कल्पकाल कहलाता है। (ति.प.4/319) उदाहरण – यह क्रम ट्रेन के अप, डाउन के समान चलता रहता है। जैसे – ट्रेन बॉम्बे से हावड़ा एवं हावड़ा से बॉम्बे आती-जाती है।
3. अवसर्पिणी एवं उत्सर्पिणी के कितने भेद हैं एवं कौन-कौन से हैं?
सुषमा–सुषमा काल, सुषमा काल, सुषमा–दुःषमा काल, दुःषमा–सुषमा काल, दुःषमा काल एवं दुःषमा–दुषमा काल। ये छ: भेद अवसर्पिणी काल के हैं। इससे विपरीत उत्सर्पिणी काल के भी छ: भेद हैं। दुषमा-दुःषमा काल, दुःषमा काल, दुःषमा–सुषमा काल, सुषमा–दुःषमा काल, सुषमा काल एवं सुषमा–सुषमा काल। इन्हें दुखमा-सुखमा भी कहते हैं।
4. सुषमा-दु:षमा का क्या अर्थ है?
समा काल के विभाग को कहते हैं। सु और दुर उपसर्ग क्रम से अच्छे और बुरे के अर्थ में आते हैं। सु और दुर उपसर्गों को पृथक्-पृथक् समा के साथ जोड़ देने से व्याकरण के नियमानुसारस का ष हो जाता है। अत: सुषमा और दुषमा की सिद्धि होती है। जिनके अर्थ क्रम से अच्छा काल और बुरा काल होता है।(म.पु. 3/19)
5. अवसर्पिणी के प्रथम तीन कालों में एवं उत्सर्पिणी के अन्त के तीन कालों में कौन सी भूमि रहती है एवं उसकी कौन-कौन सी विशेषताएँ हैं?
उनमें भोगभूमि रहती है। विशेषताएँ निम्न प्रकार हैं-
- भोगभूमि के जीवों का आहार तो होता है किन्तु नीहार (मल-मूत्र) नहीं होता। भोग भूमियाँपुरुष 72 कलाओं सहित और स्त्रियाँ 64 गुणों से समन्वित होती है। (वसु,श्रा., 263)
- यहाँ के मनुष्य अक्षर, गणित, चित्र आदि64 कलाओं में स्वभाव से ही निपुण होते हैं।
- यहाँ विकलेन्द्रिय एवं असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय जीव नहीं होते हैं।
- यहाँ दिन-रात का भेद नहीं होता एवं शीत, गर्मी की वेदना भी नहीं है।
- यहाँ सुन्दर-सुन्दर नदियाँ, कमलों से भरी वापिकाएँ, रत्नों से भरी पृथ्वी एवं कोमल घास होती है।
- युगल संतान (बेटा-बेटी) का जन्म होता है एवं इनके जन्म होते ही पिता को छींक आने से एवं माँ को जम्भाई आने से मरण हो जाता है।
- युगल संतान ही पति-पत्नी के रूप में रहते हैं, जिन्हें वे आपस में आर्य और आर्या कहकर पुकारते हैं।
- मृत्यु के बाद इनका शरीर कपूरवत उड़ जाता है।
- यहाँ नपुंसक वेद वाले नहीं होते हैं। मात्र स्त्री तथा पुरुष वेद होते हैं। इन्हें भोगोपभोग सामग्री कल्पवृक्षों से ही मिलती है।
- यहाँ के मनुष्यों में 9000 हाथियों के बराबर बल पाया जाता है। (ति.प., 4/324-381)
- यहाँ के मनुष्य एवं तिर्यञ्चों का वज़ऋषभनाराचसंहनन एवं समचतुरस्र संस्थान होता है।
सुषमा-सुषमा काल की विशेषताएँ
- इस काल में सुख ही सुख होता है। यह भोगप्रधान काल है, इसे उत्कृष्ट भोगभूमि का काल कहते हैं।
- इस काल में जन्मे युगल 21 दिनों में पूर्ण वृद्धि को प्राप्त हो जाते हैं। जिसका क्रम इस प्रकार है। शय्या पर आँगूठा चूसते हुए 3 दिन, उपवेशन (बैठना) 3 दिन, अस्थिर गमन 3 दिन, स्थिर गमन 3 दिन, कलागुण प्राप्ति 3 दिन, तारुण्य 3 दिन और सम्यक्र गुण प्राप्ति की योग्यता 3 दिन। यहाँ के जीव 21 दिन के बाद सम्यग्दर्शन प्राप्त करने की योग्यता प्राप्त कर लेते हैं।
- तीन दिन के बाद चौथे दिन बेर के बराबर आहार लेते हैं ।
- इस काल के प्रारम्भ में मनुष्यों की ऊँचाई 6000 धनुष एवं आयु 3 पल्य की होती है एवं अन्त में घटते-घटते ऊँचाई 4000 धनुष एवं आयु 2 पल्य रह जाती है।
- यह काल 4 कोड़ाकोड़ी सागर का होता है। इसमें शरीर का वर्ण स्वर्ण (रा.वा.3/29/2) के समान होता है। (ति.प.4/324-398)
सुषमा काल की विशेषताएँ
- प्रथम काल की अपेक्षा सुख में हीनता होती जाती है। इसे मध्यम भोगभूमिका काल कहा जाता है।
- इस काल में जन्मे युगल 35 दिनों में पूर्ण वृद्धि को प्राप्त हो जाते हैं। जैसे- प्रथम काल में सात प्रकार की वृद्धियों में 3-3 दिन लगते हैं तो यहाँ 5-5 दिन लगते हैं। 3.2 दिन के बाद तीसरे दिन बहेड़ा के बराबर आहार लेते हैं।
- इस काल के प्रारम्भ में मनुष्यों की ऊँचाई 4000 धनुष एवं आयु 2 पल्य की होती है एवं अन्त में घटते घटते ऊँचाई 2000 धनुष एवं आयु एक पल्य की रह जाती है।
- यह काल3 कोड़ाकोड़ी सागर का होता है। इसमें शरीर का वर्ण श्वेत रंग के समान रहता है। (तप4/399-406)
सुषमा-दुषमा काल की विशेषताएँ
- द्वितीय काल की अपेक्षा सुख में हीनता होती जाती है। इसे जघन्य भोगभूमिका काल कहते हैं।
- इस काल में जन्मे युगल 49 दिनों में पूर्ण वृद्धि को प्राप्त हो जाते हैं। जैसे -द्वितीयकाल में 7 प्रकार की वृद्धियों में 5-5 दिन लगते हैं तो यहाँ 7-7 दिन लगते हैं।
- 1 दिन के बाद दूसरे दिन आंवले के बराबर आहार लेते हैं।
- इस काल में प्रारम्भ में मनुष्यों की ऊँचाई 2000 धनुष एवं आयु 1 पल्य की होती है एवं अन्त में घटते घटते ऊँचाई 500 धनुष (त्रि.सा.783) एवं आयु 1 पूर्व कोटि की रह जाती है।
- यह काल 2 कोड़ाकोड़ी सागर का होता है, इसमें शरीर का वर्ण नीले रङ्ग (रा.वा.3/29/2) के समान रहता है।
- कुछ कम पल्य का आठवां भाग शेष रहने पर कुलकरों का जन्म प्रारम्भ हो जाता है। वे तब भोगभूमि के समापन से आक्रान्त मनुष्यों को जीवन जीने की कला का उपाय बताते हैं। इन्हें मनु भी कहते हैं। अन्तिम कुलकर से प्रथम तीर्थंकर की उत्पति होती है। (ति.प.4/407-516)
दु:षमा-सुषमा की विशेषताएँ
- यह काल अधिक दु:ख एवं अल्प सुख वाला है तथा इस काल के प्रारम्भ से ही कर्मभूमि प्रारम्भ हो जाती है।
- कल्पवृक्षों की समाप्ति होने से अब जीवन यापन के लिए षट्कर्म प्रारम्भ हो जाते हैं। असि, मसि, कृषि, विद्या, शिल्प और वाणिज्य ये षट्कर्म हैं।
- शलाका पुरुषों का जन्म एवं मोक्ष भी इसी काल में होता है। चतुर्थ काल का जन्मा पञ्चम काल में मोक्ष जा सकता है, किन्तु पञ्चम काल का जन्मा पञ्चम काल में मोक्ष नहीं जा सकता।
- युगल सन्तान के जन्म का नियम नहीं होना एवं माता-पिता के द्वारा बच्चों का पालन किया जाना प्रारम्भ हो जाता है।
- इस काल के मनुष्य प्रतिदिन (एक बार) आहार करते हैं।
- इस काल के प्रारम्भ में मनुष्यों की ऊँचाई 500 धनुष एवं आयु 1 पूर्व कोटि की होती है एवं अन्त में घटते-घटते ऊँचाई 7 हाथ एवं आयु 120 वर्ष की रह जाती है।
- यह काल 42,000 वर्ष कम 1 कोड़ाकोड़ी सागर का होता है, इसमें पाँच वर्ण वाले मनुष्य होते हैं।
- छ: संहनन एवं छ: संस्थान वाले मनुष्य एवं तिर्यञ्च होते हैं। (त्रि.सा.,783-85)
नोट – 84 लाख * 84 लाख * 1 करोड़ वर्ष = एक पूर्व कोटि वर्ष
दु:षमा काल की विशेषताएँ
- यह काल दु:ख वाला है तथा इस काल के मनुष्य मंदबुद्धि वाले होते हैं।
- इस काल में मनुष्य अनेक बार (न एक इति अनेक अर्थात् दो बार को भी अनेक बार कह सकते हैं) भोजन करते हैं।
- इस काल के प्रारम्भ में मनुष्यों की ऊँचाई 7 हाथ एवं आयु 120 वर्ष की होती है एवं अन्त में घटते घटते ऊँचाई 3 हाथ या 3.5 हाथ एवं आयु 20 वर्ष की रह जाती है।
- यह काल 21,000 वर्ष का होता है। इसमें पाँच वर्ण वाले किन्तु कान्ति से हीन युक्त शरीर होते हैं।
- अन्तिम तीन संहननधारी मनुष्य एवं तिर्यञ्च होते हैं।
- पाँच सौ वर्ष बाद उपकल्की राजा व हजार वर्ष बाद एक कल्की राजा उत्पन्न होता है।
- इक्कीसवाँ अन्तिम कल्की राजा जलमंथन, मुनिराज से टैक्स माँगेगा पर मुनि महाराज क्या दें? राजा कहता है प्रथम ग्रास दीजिए, मुनि महाराज दे देते हैं और जिससे पिण्डहरण नामक अन्तराय करके वापस आ जाते हैं। वे अवधिज्ञान से जानलेते हैं कि अब पञ्चम काल का अन्त है। तीन दिन की आयु शेष है। चारों (वीरांगज मुनि, सर्वश्री आर्यिका, अग्निल श्रावक, पंगुश्री श्राविका) सल्लेखना ग्रहण कर लेते हैं। कार्तिक कृष्ण अमावस्या को प्रात:काल शरीर त्यागकर सौधर्मस्वर्ग में देव होते हैं, मध्याह्न में असुरकुमारदेव धर्म द्रोही कल्की को समाप्त कर देता है और सूर्यास्त के समय अग्नि नष्ट हो जाती है। इस प्रकार पञ्चम काल का अन्त होता है। (ति.प.,4/1486-1552)
नोट- प्रत्येक कल्की के समय एक अवधिज्ञानी मुनि नियम से होते हैं।
दु:षमा-दु:षमा काल की विशेषताएँ
- यह काल दु:ख ही दु:ख वाला है तथा इस काल के प्रारम्भ में मनुष्यों की ऊँचाई 3 हाथ या 3.5 हाथ एवं आयु 20 वर्ष की होती है एवं अन्त में घटते-घटते ऊँचाई 1 हाथ एवं आयु 15 या 16 वर्ष रह जाती है।
- यह काल भी 21,000 वर्ष का होता है। इसमें शरीर का रङ्ग धुएँ के समान काला होता है।
- इस काल के मनुष्यों का आहार बारम्बार कंदमूल फल आदि होता है। सब नग्न और भवनों से रहित होकर वनों में घूमते हैं।
- इस काल के मनुष्य प्राय: पशुओं जैसा आचरण करने वाले क्रूर, बहरे, अंधे, गूंगे, बन्दर जैसे रूप वाले और कुबड़े बौने शरीर वाले अनेक रोगों से सहित होते हैं।
- इस काल में जन्म लेने वाले नरक व तिर्यञ्चगति से आते हैं एवं मरण कर वहीं जाते हैं।
- इस काल के अन्त में संवर्तक (लवा) नाम की वायु, पर्वत, वृक्ष और भूमि आदि को चूर्ण करती हुई दिशाओं के अन्त पर्यन्त भ्रमण करती है, जिससे वहाँ स्थित जीव मूछिंत हो जाते हैं और कुछ मर भी जाते हैं। इससे व्याकुलित मनुष्य और तिर्यञ्च शरण के लिए विजयार्ध पर्वत और गङ्गा-सिंधु की वेदी में स्वयं प्रवेश कर जाते हैं तथा दयावान् विद्याधर और देव,मनुष्य एवं तिर्यञ्चों में से बहुत से जीवों को वहाँ ले जाकर सुरक्षित रख देते हैं। (त्रि सा., 865) इसके पश्चात् क्रमश: 7-7 दिन तक 7 प्रकार की कुवृष्टि होती है। उस समय गंभीर गर्जना से सहित मेघ तुहिन (ओला), क्षार जल,विष, धूम, धूलि, वज़ एवं जलती हुई दुष्प्रेक्ष्य ज्वाला की 7-7 दिन वर्षा होती है अर्थात्कुल 49 दिन तक वर्षा होती है। अवशेष रहे मनुष्य उन वर्षाओं से नष्ट हो जाते हैं। विष एवं अग्नि की वर्षा से दग्ध हुई पृथ्वी 1 योजन तक (मोटाई में) चूर्ण हो जाती है। इस प्रकार 10 कोड़ाकोड़ी सागर का यह अवसर्पिणी काल समाप्त हो जाता है। उसके बाद उत्सर्पिणी काल के प्रारम्भ में सुवृष्टि प्रारम्भ होने से नया युग प्रारम्भ हो जाता है। उत्सर्पिणी के प्रथम काल में मेघों द्वारा क्रमश: जल, दूध, घी, अमृत, रस (त्रि सा. 868) आदि की वर्षा 7-7 दिन होती है। यह भी 49 दिन तक होती है। इस वर्षा से पृथ्वी स्निग्धता, धान्य तथा औषधियों को धारण कर लेती है। बेल,लता, गुल्म और वृक्ष वृद्धि को प्राप्त होते हैं। शीतल गंध को ग्रहण कर वे मनुष्य और तिर्यञ्च गुफाओं से बाहर निकलते हैं। उस समय मनुष्य पशुओं जैसा आचरण करते हुए क्षुधित होकर वृक्षों के फल, मूल व पते आदि को खाते हैं। इस काल में आयु, ऊँचाई, बुद्धि बल आदि क्रमश: बढ़ने लगते हैं। इसका नाम भी दुषमा-दुषमा काल है। (ति.प.4/1588-1575)
दु:षमा काल-
इस काल में भी क्रमश: आयु, ऊँचाई, बुद्धि आदि बढ़ते रहते हैं। इस काल में 1000 वर्ष शेष रहने पर क्रमशः 14 कुलकर होते हैं, जो कुलानुरूप आचरण और अग्नि आदि से भोजन पकाना आदि सिखाते हैं। (ति.प.4/1588-1590)
दु:षमा-सुषमा काल-
इस काल में आयु, ऊँचाई, बल आदि में क्रमश: वृद्धि होती हुई अन्तिम कुलकर से प्रथम तीर्थंकर महापद्म (राजा श्रेणिक का जीव) होंगेबाद में 23 तीर्थंकर और होंगे। अन्तिमतीर्थंकर अनन्तवीर्य होंगे जिनकी आयु एक पूर्व कोटि एवं ऊँचाई 500 धनुष होगी। आगे सुषमा-दुषमा चौथाकाल, सुषमा पाँचवाँ काल एवं सुषमा-सुषमा छठा काल होता है। इन तीनों कालों में क्रमश: जघन्य, मध्यम और उत्तम भोगभूमि होगी। इनमें आयु, ऊँचाई क्रमश: बढ़ती रहती है। छठा काल सुषमा-सुषमा समाप्त होने पर एक कल्प काल पूरा होता है।
विशेष – कल्पकाल का प्रारम्भ उत्सर्पिणी से होता है एवं समापन अवसर्पिणी में। ऐसे असंख्यात अवसर्पिणी-उत्सर्पिणीकाल बीत जाने पर एक हुण्डावसर्पिणी काल आता है। जिसमें कुछ अनहोनी (विचित्र) घटनाएँ घटती हैं। वर्तमान में हुण्डावसर्पिणी काल चल रहा है, जिसमें कुछ विचित्र घटनाएँ घट रही हैं। जैसे –
- तृतीय काल सुषमा-दुषमा के कुछ समय शेष रहने पर ही वर्षा होने लगी एवं विकलचतुष्क जीवों की उत्पत्ति होने लगी एवं इसी काल में कल्पवृक्षों का अन्त एवं कर्मभूमि का प्रारम्भ होना।
- तृतीय काल में प्रथम तीर्थंकर का जन्म एवं निर्वाण होना।
- भरत चक्रवती की हार होना।
- भरत चक्रवर्ती द्वारा की गयी ब्राह्मण वंश की उत्पति का होना।
- नौवें तीर्थंकर से सोलहवें तीर्थंकर पर्यन्त, जिनधर्म का विच्छेद होना। (9वें-10वें तीर्थंकर के बीच में 1/4 पल्य, 10वें-11वें के बीच में 1/2 पल्य, 11वें-12वें के बीच में 3/4 पल्य, 12वें 13वें के बीच में 1 पल्य, 13वें-14वें के बीच में 3/4 पल्य, 14वें-15वें के बीच में 1/2 पल्य एवं 15वें – 16वें के बीच में 1/4 पल्य अर्थात् कुल 4 पल्य तक मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविका कोई भी नहीं थे ) विशेष : असंख्यात वर्षों का एक पल्य होता है।
- तीर्थंकर ऋषभदेव ने तीसरे काल में जन्म लिया और इसी काल में मोक्षगए, 3 तीर्थंकर चक्रवर्तीपद के धारी भी थे एवं त्रिपृष्ठ (प्रथम नारायण) यही जीव तीर्थंकर महावीर हुआ। इस प्रकार 63 शलाका पुरुषों में से 5 शलाका पुरुष कम हुए। अर्थात् दुषमा-सुषमा काल में 58 शलाका पुरुष हुए।
- 11 रुद्र और 9 कलह प्रिय नारद हुए।
- तीन तीर्थंकरों पर मुनि अवस्था में उपसर्ग होना। (7वें, 23वें एवं 24वें)
- कल्की उपकल्कियों का होना।
- तृतीय, चतुर्थ एवं पञ्चमकाल में धर्म को नाश करने वाले कुदेव और कुलिंगी भी होते हैं।
- अतिवृष्टि, अनावृष्टि, भूकम्प, वज्राग्नि आदि का गिरना।
- तीर्थंकरों का जन्म अयोध्या के अलावा अन्य स्थानों से होना एवं मोक्ष भी सम्मेदशिखरजी के अलावा अन्य स्थानों से होना। (ति.प.,4/1637-1645)
6. क्या सम्पूर्ण भरत-ऐरावत क्षेत्रों में काल का प्रभाव पड़ता है?
नहीं। भरत ऐरावत क्षेत्रों में स्थित 5 5 म्लेच्छ खण्डों में तथा विजयार्ध की विद्याधर श्रेणियों में दुषमा सुषमा काल के आदि से लेकर अन्त पर्यन्त के समान ही हानि-वृद्धि होती है। (ति.प.4/1607)
7. भोगभूमि के अन्त में दण्ड व्यवस्था क्या रहती है ?
आदि के पाँच कुलकर अपराधी को ‘हा’ अर्थात् हाय तुमने यह बुरा किया मात्र इतना ही दण्डदेते थे। आगे के पाँच ‘हा–मा’ अर्थात् हायतुमने यह बुरा किया अब नहींकरना तथा शेषकुलकर ‘हा–मा–धिक् अर्थात् हाय तुमने यह बुरा किया अब नहीं करना, धिक्कार है, इस प्रकार का दण्ड देते थे।
8. विदेह क्षेत्र एवं स्वयंभूरमण द्वीप व स्वयंभूरमण समुद्र में काल व्यवस्था कैसी रहती है ?
विदेहक्षेत्र में सदैव चतुर्थकाल के प्रारम्भवत् तथा स्वयंभूरमणद्वीप के परभाग में एवं स्वयंभूरमण समुद्र में दुषमा काल सदृश वर्तना होती है। देवगति में निरन्तर प्रथम काल सदृश और नरकगति में निरन्तर छठवें काल सदृश वर्तना होती है (यहाँ अत्यन्तसुख एवं अत्यन्त दु:ख की विवक्षा है आयु आदि की नहीं) (त्रि.सा.884)
9. क्या इतनी विशाल- विशाल अवगाहना होती है, यह तो आश्चर्यकारी लगती है ?
वर्तमान में कुछ ऐसे प्रमाण मिले हैं, जिससे ये अवगाहना आश्चर्यकारी नहीं लगती है, बल्कि सही लगती है। कुछ प्रमाण निम्नलिखित हैं
- द्वारिका के समुद्रतल के अन्दर खोज करने वाले राष्ट्रीय समुद्र विज्ञानसंस्थान के समुद्रपुरातत्व विभाग के द्वारा किए गए उत्खनन की रिपोर्ट के अनुसार समुद्र में डूबे मकानों की ऊँचाई 200 से 600 मीटर है। इनके कमरे के दरवाजे 20 मीटर ऊँचे हैं। विशेष यह अवशेष द्वारिका के अशुभ तैजस पुतले के द्वारा जल जाने के बाद के बचे हुए हैं। यदि दरवाजे 20 मीटर ऊँचे (लगभग 70 फीट) हैं तो इनमें रहने वाले व्यक्ति 50-60 फीट से कम ऊँचे नहीं होंगे,जैन आगम के अनुसार तीर्थंकर नेमिनाथ की अवगाहना 10 धनुष अर्थात् 60 फीट थी। अत: यह सिद्ध होता है कि इतनी अवगाहना होती थी।
- वर्तमान में जिसे विज्ञान 30 से 50 फीट लम्बा डायनासोर मानता है, वह आज से कई करोड़ वर्ष पूर्व छिपकली का ही रूप है।
- मास्को में 1993 में एक ग्लेशियर सरका था। उसके अन्दर एक नरकंकाल मिला जो 23 फीट लम्बा था। वैज्ञानिक इसे 2 से 4 लाख वर्ष पूर्व का मानते हैं। यह नरकंकाल श्रीराजमल जी देहली के अनुसार आज भी मास्को के म्यूजियम में रखा हुआ है।
- बड़ौदा (गुजरात) के म्यूजियम में कई लाख वर्ष पूर्व का छिपकली का अस्थिपंजर रखा है। जो 10–12 फीट लम्बा है।
- तिब्बत की गुफाओं में कई लाख वर्ष पूर्व के चमड़े के जूते मिले हैं, जिनकी लम्बाई कई फीट है।
- भारत और मानव संस्कृति (लेखक श्री विशंबरनाथ पांडे, पृष्ठ 112-115) के अनुसार मोहनजोदड़ो हड़प्पा की खुदाई से यह सिद्ध हो गया है कि मानवों के अस्थिपंजर के आधार से पूर्वकाल में मनुष्यों की आयु अधिक व लम्बाई भी अधिक होती थी।
- फ्लोरिडा में एक दस लाख वर्ष पुराना बिल्ली का धड़ मिला है, जिसमें बिल्ली के दांत 7 इंच लम्बे हैं।
- अमेरिका में 5.5 करोड़ वर्ष पूर्व का कॉकरोच का ढाँचा मिला है। ये कॉकरोच चूहे के बराबर बड़े होते थे।
- रोम के पास कैसल दी गुड़ों में तीन लाख वर्ष पुरानी हाथियों की हड़ी मिली है, इनमें से कुछ हाथी के दाँत 10 फीट लम्बाई के हैं।