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भावलिंगी गुरुदेव की भाव साधना:-

श्रमण संस्कृति का अविरल प्रवाह अनादिकाल से भगवान महावीर स्वामी तक और भगवान वर्द्धमान स्वामी से वर्तमान तक निरंतर प्रवाहमान है। आरातीय आचार्यों के पावन तटों से होती हुई यह ‘श्रमण गंगा’ जिनश्रुत को पल्लवित और पुष्पित करती आई है। इस ‘श्रमणगंगा’ में स्नान कर अनेकानेक भव्य मुमुक्षु स्वयं तीर्थ बन गये, और अनेकानेक ‘श्रमण सपूत’ वर्तमान में स्वयं की और दूसरों की आत्मा को तीर्थ बनाने का पुरुषार्थ कर रहे हैं। पंचमकाल के ‘अध्यात्म पुत्र’ आचार्य भगवन् कुंदकुंद स्वामी का ‘अध्यात्म अमृत’ हो या फिर आचार्य भगवन् पुष्पदंत और भूतबली स्वामी द्वारा लिपिबद्ध सिद्धान्त ग्रंथों की गौरवमयी विरासत हो जितना भी जिनश्रुत का अंश वर्तमान में सुरक्षित है, उसका सारा श्रेय हमारे पूर्ववर्ती आचार्यों की करुणाशीलता को ही जाता है। इन्हीं पूर्ववर्ती आचार्यों की महान परम्परा में बीसवी सदी के महान आचार्य श्री आदिसागर जी अंकलीकर की विशाल आचार्य परम्परा में एक ज्येष्ठ और श्रेष्ठ आचार्य हैं। सूरिगच्छाचार्य श्री 108 विरागसागर जी महाराज, उनके श्रेष्ठ शिष्यों की अनुपम श्रृंखला में श्रेष्ठ साधक, अध्यात्म के संवाहक, निस्पृहयोगी, परमपूज्य श्रमणाचार्य 108 श्री विमर्शसागर जी महामुनिराज शिष्यों की सुंदर परिभाषा और सद्गुरु का वृहद स्वरूप हैं। पूज्य श्री ने अल्पवय में ही कलिकाल का सबसे बड़ा चमत्कार कर दिखाया, जिसका नाम है ‘दिगम्बरत्व’। हमारे आचार्य भगवंत कहते हैं|

कलौ काले चले चित्ते, देह चान्नादि कीटके ।
एतच्चित्चमत्कारः  ,  जिनरूप धरा नराः ।।

अर्थात् इस कलिकाल में चित्त चलायामान है और देह अन्न का कीड़ा बना हुआ है, ऐसे में गर कोई जिनरूप को, नर धारण करे तो यह चैतन्य का चमत्कार ही जानना चाहिये।

ऐसे चैतन्य के चमत्कार से, भोग विलासता में डूबे जगत को विस्मय पैदा करने वाले, निग्रंथ साधना को नये आयाम देने वाले, बुंदेली धरा के सपूत, परम पूज्यनीय श्रमणाचार्य 108 श्री विमर्शसागर जी महाराज की जीवन यात्रा का शुभारंभ बुंदेलखंड के एक छोटे से कस्बे ‘जतारा’ से ठीक उसी प्रकार हुआ जिस प्रकार गंगा का जन्म हिमालय से होता है। गंगा का आविर्भाव जब हिमालय से होता है तो अति लघु रूप में होता है, किन्तु में वह गोमुख से प्रगटी छोटी सी जलधारा एक विराट नदी का आकार धारण कर लिया करती है। ठीक उसी प्रकार पूज्य गुरुदेव श्री की जीवनयात्रा एक साधारण से सुसंस्कृत परिवार से शुरू हुई, किसी को पता नहीं था कि सनतकुमार जी और माँ भगवती की कुक्षी से जन्मा यह बालक एक दिन जैन दर्शन का मर्मज्ञ विद्वान और श्रेष्ठ साधुवर्ग से समादृत, भावलिंग की साधना का श्रेष्ठ साधक बनेगा। श्रमण जगत के निर्मल आकाश में ध्रुव नक्षत्र, की भाँति दैदीप्यमान पूज्यवर का अपराजेय व्यक्तित्व शब्दों के माध्यम से बाँधने योग्य नहीं है। अध्यात्म के अपरिमित योगी का बी.एस.सी. तक उच्च शिक्षा के बाद चेतना को अध्यात्म की तरफ मोड़ना निश्चित रूप से सबको चकित करने वाला था। चैतन्य के इस अनुपमेय चमत्कार की मंगलमयी अभिव्यक्ति को साकार रूप देनेवाले अध्यात्म चेतना के तत्त्वदर्शी सूत्रधार परम पूज्य 108 श्री विमर्शसागर जी महाराज ने ऊर्ध्वगामी शक्तियों को ओजस्विता प्रदान करनेवाले संयम पथ को चुनकर श्रमण अस्मिता को नूतन आध्यात्मिक ऊर्जा प्रदान की है।

इस अनासक्त योगी का 15 नवम्बर को अर्थानि पर आविर्भाव जगति के लिये नूतन उपहार से कम नहीं था। 1995 में ब्रह्मचर्य की तेजस्विता के साथ जिनशासन की अप्रतिम साधना का ध्वजारोहण कर, 1996 में ऐलक दीक्षा तथा 1998 में श्रमण प्रवज्या के स्वरूप का अभ्यर्चन निश्चित रूप से अद्वितीय और यशस्वी कदम था। आत्मान्वेषी साधक का मात्र चार वर्ष में ब्रह्मचर्य से श्रमणत्व तक का सफर यह स्पष्ट करता है कि इस सत्यान्वेषी साधक का, साधना के प्रति अप्रतिम अनुराग कितना गहन था और परमपूज्य युगप्रमुख श्रमणाचार्य, सूरिंगच्छाचार्य 108 श्री विरागसागर जी महाराज द्वारा मात्र सात वर्ष बाद ही सद्गुणों से ऊर्जस्वित श्रमण श्री विमर्शसागर जी को आचार्य पद की उद्घोषणा निश्चित रूप से उनकी अप्रतिम योग्यता का गुरु के अपराजेय आशीष द्वारा मंगल अभिषेक ही था।

तेजस्वी बचपन:-

बाल्यावस्था से ही अपने व्यक्तित्व की अपूर्व तेजस्विता से हर व्यक्ति को प्रभावित करने का ‘तिलिस्म’ उनके पास था। आत्मा की स्वच्छ और पवित्र अवनि पर माता-पिता के सुसंस्कारों से अभिप्रेरित होकर धर्म का सुखद अंकुरण अल्पवय में ही होने लगा था। जो वर्तमान में जिनशासन की आध्यात्मिक साधना का वटवृक्ष बनकर अनेक भव्य जीवों को अहर्निश धर्म की शाश्वत शीतल छाँव प्रदान कर रहा है। नन्हीं देह में भी विराट और असीम व्यक्तित्व की झलक तब दिखाई देती थी, जब दीन-दुखी असहाय जीवों के प्रति करुणाशील भाव प्रवणता से उनके आत्मा का एक-एक प्रदेश द्रवित हो उठता था।

कला और विज्ञान की जैसी अनूठी प्रखरता का समन्वय इस काव्यनायक के जीवन में दृष्टिगोचर होता है, वैसा हर किसी सामान्य व्यक्ति में देखने को नहीं मिलता। अपने से बड़ों के प्रति ‘विनीत बचपन’ उनका अनुकरणीय है, स्तुत्य है, प्रशंसनीय है। श्रेष्ठ कुलीन महान पुरुषों में विनम्रता स्वाभाविक रूप से ही प्राप्त होती है। कहा भी है

नमन्ति सफला वृक्षा, नमन्ति कुलजा नराः ।
शुष्क काष्ठाश्च, मूर्खाश्च न नमन्ति कदाचनः ।।

अर्थात् फल युक्त वृक्ष और कुलीन मनुष्य नम्र होते हैं, परन्तु सूखे काष्ठ और मूर्ख कभी नम्र नहीं होते। अपनी विनयशीलता के कारण ही राकेश सभी गुरुओं की नजरों में प्रिय शिष्य के रूप में सम्मान पाते थे।

यशस्वी श्रमण:

परम पूज्य 108 श्रमणाचार्य श्री विमर्शसागर जी महाराज का ‘करिश्माई सामीप्य’ आत्मा की बंजर भू पर वैराग्य के मुखद अंकुर उत्पन्न करने वाला होता है। इन पूज्यपाद के दमकते हुये ऊर्जस्वी मुखमण्डल पर फैली समता भरी मुस्कान के भावनात्मक संप्रेषण से जनमानस अपने दुखदर्द को अपने अंदर सुख शान्ति और समृद्धि की अजस ऊर्जा की सुखद अनुभूति करने लगता है। वंदनीय पूज्यवर के विविधतापूर्ण व्यक्तित्व की ‘अनुद्विघन साधना’ वर्तमान समाज में फैले सामाजिक प्रदूषणों को दूर कर एकता और अखण्डता का दिव्य उद्घोष करती है। तभी तो इस ‘यशस्वी श्रमण’ का यश फूलों की सुगंध की तरह चारों ओर सुविख्यात है।

ओजस्वी वाग्पति:–

आपका ‘आगमानुगामी शब्दाकर्षण’ आपको श्रेष्ठ वक्ता के रूप में प्रतिस्थापित करता है। आचार्य भगवन् आत्मानुशासन ग्रंथ में श्रेष्ठ वक्ता का लक्षण बताते हुये लिखते हैं-

प्राज्ञः प्राप्त समस्त शस्त्र हृदयः प्रव्यक्त लोकस्थितिः ।
प्रास्ताश: प्रतिभापरः प्रशमवान् प्रागेव दृष्टोत्तरः ।
प्राय: प्रश्न सहः प्रभुः परमनोहारी परा निन्दया ।
ब्रूयाद् धर्मकथां गणी गुणनिधिः प्रस्पष्ट मिष्टाक्षरः ||27॥

अर्थात् जो बुद्धिमान हो, समस्त शास्त्रों का ज्ञाता हो, लोक रीति का जानकार हो, आशा से रहित हो, प्रतिभा सम्पन्न हो, प्रशम भाव से सहित हो, उठने वाले प्रश्नों के उत्तर जिसने पहले हो देख लिये हों, प्राय: प्रश्नों को सहन करने वाला हो, प्रभावी हो, दूसरों की निंदा के बिना, दूसरों के मन को हरण करने वाला हो, गुणों का भण्डार हो, स्पष्ट और मिष्ठ अक्षर वाला हो ऐसा गणी या आचार्य ही धर्म कथा को कहने योग्य होता है। ‘विराज वाग्पति’ राष्ट्रयोगी आचार्य प्रवर श्री विमर्शसागर जी महाराज के श्री मुख से जब हम ‘सत्वधर्मी’ वाग्मिता का रसपान करते हैं, तो उक्त कारिका प्राणवंत और जीवंत हो उठती है।

आपकी निःशंक शैली को सुनकर विद्वत समूह अक्सर कहता पाया जाता है कि “महाराज श्री जब आपके प्रवचन सुनते हैं तो हम विद्वानों का सीना चौड़ा हो जाता है, हमें गर्भ होता है कि वर्तमान में भी आचार्य समंतभद्र स्वामी और अकलंक देव जैसे निर्भीक साधक मौजूद हैं जो बिना किसी लाग लपेट के जिनेन्द्र वाणी का मुक्तकंठ से उद्घोष करते हैं।”

अनुशासन का महारूप:-

आत्मानुशासित शुद्ध चिद्रूप चिन्तन के प्रस्तोता ‘यतीश्वर’ परम अर्चनीय पूज्य श्रमणाचार्य 108 श्री विमर्शसागर जी महाराज के जीव वृत्त पर जब हम अनुशासन की रेखाओं को निहारते हैं तो एक और हमें ‘वीरशासन’ की असीम समृद्धि दिखाई देती है तो दूजी और ‘विराग शासन’ का विराट रूप नजरों में लहराता है। वो खुद अनुशासन के दायरे में रहते हैं और अपने संघस्थ साधकों को सतत् अनुशासन की पाटी पढ़ाते रहते हैं। पूज्य गुरुदेव के संघ संचालन के अनुपम तरीके में उनकी ‘आत्मानुशासन प्रिय परिणति’ का महान रूप स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। पूज्यवर का प्रभावी नायकत्व उन्हें अन्य संतों से अलग श्रेणी में लाकर खड़ा करता है। शिष्य उनके श्रीमुख से कर्त्तव्य पालन की शिक्षा रूप ‘चैतन्य रसायन’ को पाकर अपने अंदर कर्त्तव्य पालन की असीम ऊर्जा का संचार पाते हैं। शैथिल्य को दूर करनेवाले गुरु के उपदेश का एक-एक शब्द कर्त्तव्यों के पालन में जागरण का नव संदेश देता है|

"विमर्शोदया" प्राकृत टीका, लिख बने प्रथमाचार्य:-

श्रुत संबर्धन के लिये समर्पित पूज्य गुरुदेव द्वारा आचार्य भगवन् अमितगति स्वामी कृत सहर वर्ष प्राचीन ‘श्रीयोगसार प्राभृत’ संस्कृत ग्रंथ पर प्राकृत भाषा में “विमर्शोदया” अपर नाम ”अप्पोदया” नामक वृहद् टीका का सृजन किया गया है। हमारे पूर्ववर्ती आचार्यों की सुदीर्घ श्रृंखला में टीका लेखन की आम्नाय अति प्राचीन है लेकिन प्राय: सभी संस्कृत एवं प्राकृत ग्रंथों पर लगभग सभी टीकार्य संस्कृत में लिखी गई। अल्प टीकायें प्राकृत ग्रंथों पर प्राकृत भाषा में भी प्राप्त होती है लेकिन यह प्रथम अवसर है जब दिगम्बर जैनाचार्य श्री विमर्शसागर जी मुनिराज द्वारा किसी संस्कृत भाषा के ग्रंथ पर प्राकृत टीका ”अप्पोदया” का लेखन हुआ है, जो श्रुत संस्कृति के क्षेत्र में एक अपूर्व स्वर्णिम इतिहास बनेगा। पूज्य गुरुदेव ने वर्षायोग 2010 में पर्वराज पर्युषण की पावन बेला में ‘श्रीयोगसार प्राभृत’ ग्रंथ पर प्राकृत भाषा में ”अप्पोदया” नामक टीका का शुभारम्भ किया। इस वृहद् कार्य ग्रंथ में 540 गाथायें हैं, इस ग्रंथ पर लगातार 5 वर्ष तक पूज्य गुरुदेव की प्रज्ञ लेखनी चली और टीकमगढ़ चातुर्मास 2015 में ”आश्विनी कृष्णा सप्तमी” के दिन बाजार जैन मंदिर में मूलनायक भगवान पारनाथ के पादमूल में बैठकर पूज्य आचार्य श्री विमर्शसागर जी महाराज ने लगभग 1000 पृष्ठीय इस वृहद प्राकृत टीका को पूर्ण किया और लिख दिया आम्नाय के भाल पर एक अमिट स्वर्णिम इतिहास।

जीवन है पानी की बूंद (महाकाव्य) :–

‘अंतर्मुखी शुभांग’ निग्रंथराज के अपरिमित व्यक्तित्व का एक अहम् पक्ष है उनकी ‘अप्रतिम काव्य’ साधना पूज्य श्री के कविहृदय से निःस्त एक-एक शब्द जीवन्त कविता का प्रणयन करता है। मध्यप्रदेश के भिण्ड नगर में गुरु चरणों में वर्षावास 1997 के पावन पलों में कविमनः पूज्य ऐलक श्री विमर्शसागर जी के हृदय पटल कर एक ऐसे महाकाव्य ने जन्म लिया, जिसे अगर जैन जगत का सर्वाधिक लोकप्रिय काव्य कहा जाये तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। वर्तमान में चाहे कोई पंचकल्याणक महोत्सव हो, दीक्षा महोत्सव हो. या फिर विधान आदि आयोजन, ऐसा कोई भी आयोजन नहीं जहाँ इस दिगम्बर देव को यह अमर कृति-

“जीवन है पानी की बूँद कब मिट जाये रे|”
“होनी-अनहोनी कब क्या घट जाये रे ||”

न गूँजत हो चाहे संगीतकार हो या साधु-साध्वियाँ हर कंठ में रमण करने वाली इस ”आदर्श महाकवि” की यह कालजयी रचना सिर्फ जैनों तक ही सीमित नहीं है, अपितु संप्रदायों की सारी दीवारों को सौंपकर आज पूरे भारत वर्ष और विदेशों में भी धर्म निरपेक्ष रूप से गुनगुनाई जाती है। भक्तों की श्रद्धा उन्हें ”जीवन है पानी की बूंद वाले बाबा” कहकर अपने आप को गौरवान्वित महसूस करती है। अभी तक पूज्य गुरुदेव की लेखनी से इस महाकाव्य में साधिक 5,000 छंद शब्दों का लियास ओढ़ चुके हैं।

कृतित्व में झलकता व्यक्तित्व का ऐश्वर्य:-

‘सत्व हितंकर’ आप्त की वाणी का अनुसरण करने में सुदक्ष, गुरुवर को अवक्ष चिंतनधारा से उद्भूत लगभग 500 कवितायें, सैकड़ों भजन, सैकड़ों गजलें और कई स्तोत्र एवं महान ग्रंथों के पद्यानुवाद, हजारों श्री मुख से निःसृत सूक्तियाँ और अतुकान्त क्षणिकायें मन को ‘सच्चिदानंद स्वरूप महादेवता’ की अनुपम भक्ति की अजस्र धारा से जोड़ने में समर्थ हैं। वो एक श्रेष्ठ कवि नहीं, आदर्श महाकवि हैं। उनके प्रखर चिन्तन से आविर्भूत प्रवचन साहित्य में रयणसार, ज्ञानांकुश, समाधितंत्र, भक्तामर रत्नकरण्ड श्रावकाचार, इष्टोपदेश, योगसार आदि-आदि महान ग्रंथों पर प्रवचनात्मक टीकायें एवं गूँगी चीख, शंका की एक रात, भरतजी घर में वैरागी, शब्द-शब्द अमृत आदि अनेक लघु कृतियाँ अंतस को झकझोरने में समर्थ हैं, इनके अलावा भी उनकी हर एक छोटी एवं बड़ी कृति अध्येता का “mind wash” करती है। पूज्यवर का हर एक चिंतन और हर एक शब्द चिर स्मरणीय होता है।

“विमर्श लिपि" दिव्य अनुदान:-

पूज्य गुरुदेव का बहुआयामी व्यक्तित्व आज देश, धर्म, समाज, श्रमण एवं श्रावक सभी के लिये कुछ अवदान का हेतु बन पड़ा है। तभी तो उनका जीवन सभी के लिये आदर्श है। जनमानस को कुछ नया और लोकोपयोगी कृतित्व भेंट करने का गुरुदेव का सक्रिय चिंतन ही, उनके द्वारा प्रदत्त अनेक अमूल्य अवदानों के सृजन का हेतु बनता है। इसी सृजनशील चिंतन से उपजी एक अनूठी और अपूर्व देन है- ‘विमर्शलिपि’ एवं ‘विमर्श अंक लिपि’ । लिपियों के मौलिक सृजन में आज तक किसी भी दिगम्बर जैनाचार्य का नाम आम्नाय के पृष्ठों पर अंकित नहीं है। पूज्य गुरुदेव श्रमणाचार्य श्री 108 विमर्शसागर जी महामुनिराज ऐसे प्रथम दिगम्बर जैनाचार्य हैं, जिनकी प्रज्ञ लेखनी से मौलिक रूप से उभय लिपियों का सृजन हुआ, जिनको गुरुभक्तों ने मिलकर’ विमर्श लिपि’ एवं ‘ विमर्श अंक लिपि’ की संज्ञा प्रदान की। इस लिपियों के सृजन में पूज्य गुरुदेव की रचनात्मक सोच ‘Creative Think’ एवं ज्ञान का अपूर्व क्षयोपशम ये उभय कारण ही मुझे प्रतीत होते हैं।

पाठ्यक्रम में शामिल हुई प्रथम जैनाचार्य की रचना:-

अनेकान्तिनी प्रतिभा’ को अपने व्यक्तित्व में समेटे महान जैनाचार्य प. पू. गुरुदेव श्रमणाचार्य 108 श्री विमर्शसागर जी महाराज के दिव्य अवदानात्मक मौलिक कृतित्व में एक बहुमूल्य कृति है “देश और धर्म के लिये जियो” | इस रचना में जहाँ एक और धार्मिक एहसास है तो वहीं दूजी और इस रचना में देश भक्ति और नैतिकता की मिठास भी घुली हुई है। पूज्य गुरुदेव की इस मौलिक रचना को मध्यप्रदेश राज्य शिक्षा केन्द्र भोपाल द्वारा कक्षा 11 की हिन्दी सामान्य की पुस्तक “मकरंद” के पाठ्यक्रम में शामिल किया गया है।

प. पू. गुरुदेव की द्वितीय रचना ‘ माँ – एक सुखद अनुभूति का अहसास ‘ को म.प्र. शिक्षा बोर्ड ने कक्षा आठवीं की एटग्रेड अभ्यास पुस्तिका ‘ भाषा भारतीय ‘ में प्रकाशित किया है|

पूज्य गुरुदेव ऐसे प्रथम दिगम्बर जैनाचार्य हैं जिनकी रचना को कक्षा 11 एवं कक्षा – ८ के पाठ्यक्रम में स्थान दिया गया है। इससे पूर्व कभी भी किसी भी जैन संत की कोई भी रचना स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल नहीं की गई।

संस्कारों का मुखरित स्वरूप:-

‘सत्यान्वेषी वाग्पति’ युवाचार्य श्री विमर्शसागर जी गुरुदेव द्वारा जब संस्कारों की मंदाकिनी प्रवाहित की जाती है तब उनकी ‘वाणी का गुरुत्वाकर्षण’ भोग विलास में डूबे युवाओं के हृदय में, हमारी विशद सांस्कृतिक विरासत के प्रति नवजागरण का अभिनव संदेश प्रेषित करता है। चाहे आनंद महोत्सव (श्री मज्जिनेन्द्र पूजन प्रशिक्षण शिविर) के सुविमल क्षण हो, चाहे’ भक्तामर महिमा’ (श्री भक्तामर प्रशिक्षण शिविर) की-मंगल घड़ियाँ या फिर ‘भ्रूण हत्या’. ‘नशामुक्ति’, ‘संस्कार’, ‘सत्संग’, ‘अहिंसक जीवन’, ‘वृद्धों की सेवा’, ‘आपसी संवाद’, ‘शाकाहार’, ‘आदर्श परिवार’ और जैनाचार आदि सार्वजनीन विषयों पर, ओजस्वी व्याख्या पूज्य श्री के हर आयोजन में संस्कारों की दिव्य चमक दिखाई देती है।

राष्ट्रयोगी का स्वप्न:-

राष्ट्रयोगी का राष्ट्र के लिये एक सपना है। वो कहते हैं कि हमारे देश के युवाओं का व्यक्तित्व, धर्म के संस्कारों से संस्कारित सामाजिक प्रेम से ओत-प्रोत तथा राष्ट्रभक्ति से समृद्ध होना चाहिये। पूज्य गुरुदेव कहते हैं-भारत देश की युवा शक्ति, नशीली चीजें, गुटखा, शराब, सिगरेट, ड्रग तथा व्यसनों से दूर रहे, शाकाहार, योग तथा माता-पिता की सेवा को अपना कर्तव्य समझे। भारत देश का प्रत्येक वर्ग साधु, शिक्षक, राजनेता, सैनिक, पुलिस, छात्र-छात्रायें, आम नागरिक एवं सामाजिक संगठन, सभी कर्त्तव्य निष्ठ बने, और अपनी मर्यादा में रहते हुये, कर्तव्य पालन करें। पूज्य श्री कहते हैं कि मैं चाहता हूँ-प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के पुत्र चक्रवर्ती भरत का यह भारत देश सदा खुशहाल, सम्पन्न और समृद्ध रहे। भारत देश में भौतिक समृद्धि के साथ आध्यात्मिक समृद्धि का भी सदा स्वागत हो। भारत देश का हर नौजवान हिंसा को छोड़ अहिंसा में विश्वास रखे और विश्वभर में अहिंसा की अलग जगाये। भारत की नारी शक्ति सीता, अंजना, चंदनवाला को आदर्श मानकर आगे बढ़े, जिससे नारी स्वाभिमान से सम्मानपूर्वक जीना सीख सके। भारत देश में कभी भ्रूणहत्या न हो, कन्या भ्रूणहत्या विकलांग चिंतन की उपज है, जो सर्वथा अनैतिक है साथ ही ब्रह्म हत्या की दोषी भारत देश का नागरिक समृद्ध बने, शादी में धन का अपव्यय न करें, शादी में करोड़ों का खर्च किसी चिकित्सा, शिक्षा, सामाजिक, धार्मिक क्षेत्र में लगाकर खुशियाँ चिर स्थाई करें।

निस्पृहता का यशस्वी चेहरा:-

करपात्री लक्षण से लक्षित निस्पृह साधना के ‘सतर्क साधक’ ‘अनासक्त योगी’ परम स्तुत्य संत श्रमणाचार्य श्री विमर्शसागर जी गुरुदेव वर्तमान श्रमण संघ में ऐसी अनूठी निस्पृह वृत्ति के सूत्रधार आचार्य हैं कि उनकी अमण अस्मिता की प्राणभूत शालीन चर्या, हर दिगम्बर संत को दर्पण दिखाती है। और हर साधक को आगाह करती है कि आप भौतिक साधनों की फिसलन में अपने गौरवशाली कदम अपनी अयाचक और निस्पृह वृत्ति से परिमार्जित करके रखें। पूज्य गुरुदेव को आचार्य श्री विरागसागर जी महाराज द्वारा आचार्य पद की सुयोग्य घोषणा होने के बाद, कई बार कई स्थानों की स्वाध्याय शील समाजों द्वारा, संतों द्वारा, विद्वानों द्वारा ऊर्जावान यशस्वी संगठनों द्वारा पूज्य श्री को आचार्य पद पर स्थापित करने के सुनिवेदनों की सुदीर्घ श्रृंखला कई वर्षों तक अनवरत चलती रही लेकिन इस संकल्पशील वैरागी के सुमुख से हर बार ऐसे निस्पृहता के सूत्रों की मंदाकिनी वही कि सभी के निवेदन उसके बहाव के सन्मुख नतमस्तक हो गये। किन्तु यशस्वी गुरु प. पू. राष्ट्रसंत श्री विरागसागर जी महाराज की आज्ञा को यह समर्पित अन्तेवासिन, सुशिष्य अस्वीकार न कर सके। और पूज्य गुरुवर द्वारा अनेक भव्यों के सुकल्याणार्थ परम पूज्य निर्द्वन्द योगी मुनि श्री विमर्शसागर जी को 12-12-2010, बाँसवाड़ा (राज.) में गणीपद पर आसीन कर दिया गया, और हमें मिल सका एक श्रमण संघ से वरीयता प्राप्त कुशल आचार्य का पादमूल।

वर्द्धमान चारित्री, परमोपास्य “भावलिंगी संत” पूज्य गुरुदेव का आदर्श जीवन दिगम्बरत्व की प्रदीप्त साधना का अमर यशोगान है। पूज्य गुरुदेव के असीम व्यक्तित्व को हम कितना भी शब्दों के द्वारा लिखने और कहने का प्रयत्न करें, लेकिन वास्तविकता यही है कि शब्दों के द्वारा कभी असीम की अभिव्यञ्जना संभव नहीं हैं। लोकमत है कि सूरज के सन्मुख दीप की टिमटिमाती शिखा का कोई महत्व नहीं है। हाँ, ये बात बिल्कुल सोलह आने सत्य है, अगर वह दीप की शिखा सूर्य की सहस्र रश्मियों से प्रतिस्पर्धा करने की भावना से जन्मी हो तो वह दीप तिरस्कार का पात्र बन जाता है और अगर वही दीप की शिखा, दिनकर की नीराजना उतारने की सुविमल भावना से जन्मी हो, तो वह दीप पूजन की थाली में सजा के रखा जाता है। मेरे इस दीपक की शिखा से जो भी भक्ति की रोशनी विखरेगी, वह सब आरती के मायने होगी। इस दीप की शिखा में जो भी रोशनी है उसको जन्म देने का श्रेय मम् गुरुदेव श्रमणाचार्य श्री विमर्शसागर जी महामुनिराज को जाता है और पूज्य गुरुदेव ने इस दीप को सिर्फ आरती के थाल में जलना ही सिखाया है, अहंकार में जलना नहीं। इस लेखन में मेरा अपना कुछ भी नहीं है, इस लेखन में मूलभूत शक्ति बनकर जिसने काम किया, वो है, पूज्य गुरुदेव के श्रीमुख पर बिखरी स्मित सी मुस्कान और अल्प ऊपरोहित वरदायी कर पल्लव, जो मुझे शुभाशीष के रूप में अहर्निश उपलब्ध होते रहते है, ये वरदायी कर पल्लव मुझे मेरी अंतिम श्वांस तक प्राप्त होते रहे, मेरी मात्र यही भावना है।

भावलिंगी संत के स्वानुभूति चातुर्मास :

1. मढ़ियाजी जबलपुर - 1996
4. भिण्ड (म.प्र.) - 1999
7. सतना (म.प्र.) – 2002
10. सिंगोली (नीमच)– 2005
13. आगरा (उ.प्र.) – 2008
16. अशोकनगर (म.प्र.) - 2011
19. बड़ौत (उ.प्र.)– 2014
22. जबलपुर (म.प्र.) – 2017
25. बाराबंकी (उ.प्र.) – 2020
27. जतारा (म.प्र.) – 2023
2. भिण्ड (म.प्र.) – 1997
5. महरौनी (उ.प्र.) – 2000
8. अशोकनगर (म.प्र.) – 2003
11. कोटा (राज.) – 2006
14. एटा (उ.प्र.) -2009
17. विजयनगर (राज.)– 2012
20. टीकमगढ़ (म.प्र.)- 2015
23. छिंदवाड़ा (म.प्र.) – 2018
25. महमूदाबाद (उ.प्र.) – 2021
3. भिण्ड (म.प्र.) – 1998
6. अंकुर कॉलोनी (सागर) – 2001
9. रामगंजमण्डी (राज.)– 2004
12. शिवपुरी (म.प्र.) - 2007
15. डूगरपुर (राज.) – 2010
18. भिण्ड (म.प्र.) -2013
21. देवेन्द्रनगर (म.प्र.) – 2016
24. दुर्ग (छत्तीसगढ़)- 2019
26. गाज़ियाबाद (उ.प्र.) – 2022
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