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श्री प्रवचनसार गाथा १४ में शुद्धोपयोग परिणत आत्मा का कथन श्री कुंदकुंद आचार्य ने निम्न प्रकार किया है-
सुविदिदपयत्थसुत्तो संजमतवसंजुदो विगदरागो
समणो समसुहदुक्खो भणिदो सुद्धोवओगो त्ति ॥ १४ ॥
अर्थ- जिन्होंने पदार्थों को और सूत्रों (पूर्वी) को भलीभांति जान लिया है, जो संयम और तपयुक्त हैं जो वीतराग अर्थात् राग रहित हैं और जिन्हें सुख-दुःख समान हैं; ऐसे मुनि को शुद्धोपयोगी कहा गया है।
इस गाथा से स्पष्ट है कि मुनि ही शुद्धोपयोगी हैं। फिर चौथे गुणस्थान वाला शुद्धोपयोगी कैसे हो सकता है? हाँ! वो शुद्धोपयोग की भावना करने वाला होता है|
जो सवस्त्र मुक्ति मानते हैं वे चौथे गुणस्थान में भी वस्त्र सहित के शुद्धोपयोग का विधान करते हैं किन्तु दिगम्बर आम्नाय में सवस्त्र के शुद्धोपयोग का विधान नहीं है।
उपशम, क्षयोपशम या क्षायिक कोई भी सम्यकदृष्टि हो उसके चतुर्थ गुणस्थान में संयम का अभाव होता है, अतः वह हेय बुद्धि से इन्द्रिय सुख का अनुभव करता है। उसके तो क्या जो संयमासंयमी या प्रमत्तसंयत हैं उनके भी शुद्धोपयोग संभव नहीं है किन्तु धर्मध्यान रूप शुभोपयोग अवश्य होता है।
कहा भी है- मिथ्यात्व सासादन और मिश्र इन तीन गुणस्थानों में तरतमता से अशुभोपयोग होता है। उसके पश्चात् असंयत सम्यग्दृष्टि, देशविरत और प्रमत्तसंयत इन तीन गुणस्थानों में तरतमता से शुभोपयोग होता है। उसके पश्चात् अप्रमत्त आदि क्षीण-कषाय तक छह गुणस्थानों में तरतमता शुद्धोपयोग होता है। सयोगी और अयोगीजिन ये दो गुणस्थान शुद्धोपयोग का फल है। प्रवचनसार गाथा ९ पर भी जयसेन आचार्य की संस्कृत टीका, वृहद-द्रव्यसंग्रह गाथा ३४ पर संस्कृत टीका।
यथाख्यात चारित्र को स्वरूपाचरण चारित्र कहते हैं। कहा भी है-
“रागद्वेषाभावलक्षणं परमं यथाख्यातरूपं स्वरूपे चरणं निश्चयचारित्रं।” परमात्मप्रकाश २/३६
अर्थ – रागद्वेष के अभावरूप उत्कृष्ट यथाख्यात चारित्र स्वरूपाचरण चारित्र है वही निश्चय चारित्र है।
“स्वरूपे चरणं चारितं वीतरागचारित्रमिति ।” परमात्मप्रकाश २/४०
जो वीतराग चारित्र है वही स्वरूपाचरण चारित्र है।
यथाख्यात चारित्र अर्थात् वीतराग चारित्र ग्यारहवें गुणस्थान से पूर्व नहीं होता है अतः स्वरूपाचरण चारित्र भी ग्यारहवें गुणस्थान से पूर्व नहीं होता है।
‘यथाख्यात चारित्र अर्थात् स्वरूपाचरण चारित्र’ चारित्र गुण की पर्याय है जो संज्वलन कषायोदय के अभाव में उत्पन्न होती है। जब तक स्वरूपाचरण चारित्र का घातक संज्वलन कषाय का उदय है उस समय तक यथाख्यात चारित्र अर्थात् स्वरूपाचरण चारित्र का अंश भी उत्पन्न नहीं हो सकता। चारित्र की अन्य पर्याय उत्पन्न हो सकती है।
चतुर्थ गुणस्थान में जहाँ चारित्र का भी अंश नहीं है वहाँ स्वरूपाचरण चारित्र का अंश कैसे संभव हो सकता है ?
चतुर्थ गुणस्थान में चारित्र का निषेद निम्न आर्ष ग्रन्थों से हो जाता है-
समेतमेव सम्यक्त्वज्ञानाभ्यां चरितं मतम् ।
स्यातां विनापि ते तेन गुणस्थाने चतुर्थके ॥७४/५४३।। उत्तरपुराण
सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान से सहित ही सम्यक् चारित्र होता है परन्तु चतुर्थ गुणस्थान में सम्यक् चारित्र के बिना भी सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान होता है।
“सम्यग्दर्शनस्य सम्यग्ज्ञानस्य वा अभ्यतरस्यात्मलाभे चारित्रमुत्तरं भजनीयम् ।” रा. वा. १/१/७५
सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान के प्राप्त हो जाने पर चारित्र भजनीय है अर्थात् चारित्र हो अथवा न भी हो। जैसे चतुर्थ गुणस्थान में सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान तो है किन्तु चारित्र नहीं है, छठे आदि गुणस्थानों में सम्यग्दर्शन के साथ सम्यक्‌चारित्र भी होता है।
यदि यह कहा जाये कि चतुर्थ गुणस्थान में मोहनीय की अनन्तानुबन्धी कषाय के उदय का अभाव है अतः उसके अभाव में जो चारित्र उत्पन्न होता है, वह ही स्वरूपाचरण चारित्र है?
सो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि अनन्तानुबन्धी कषायोदय का अभाव तीसरे गुणस्थान में भी होने में तीसरे गुणस्थान में भी स्वरूपाचरण चारित्र का प्रसंग आ जायेगा जो किसी को भी इष्ट नहीं है।
वास्तव में चारित्र की घातक अप्रत्याख्यानावरण आदि कषाय हैं, क्योंकि प्रत्याख्यान का अर्थ चारित्र या संयम है, ‘प्रत्याख्यानं संयमः’ ऐसा आर्ष वाक्य है। अप्रत्याख्यान का अर्थ ईषत् चारित्र है, क्योंकि “न; ईषदर्थत्वात् नग्नः।” जो ईषत् चारित्र को भी न होने देवे वह अप्रत्याख्यानावरण कषाय है।
यदि यह कहा जाये चतुर्थ गुणस्थान में जो निश्चल-अनुभूति होती है वही स्वरूपाचरण चारित्र है भले ही वह एक क्षण के लिए हो? सो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है,
क्योंकि जो निश्चल-अनुभूति है वह वीतराग चारित्र है, चतुर्थ गुणस्थान में सराग चारित्र भी नहीं है वीतराग-चारित्र की बात तो दूर रही।
“सरागचारित्रं पु्ण्यबन्ध कारणमिति ज्ञात्वा परिहृत्य निश्चलशुद्धात्मानुभूतिस्वरूपं वीतराग चारित्रमहमाश्रयामि ।” प्रवचनसार गाथा ५ की टीका ।
अर्थात्- सराग चारित्र पुण्य बन्ध का कारण है ऐसा जानकर उसको छोड़कर वीतराग चारित्र, जो कि निश्चल शुद्धात्मानुभूति रूप है उसका आश्रय लेता है।
“निश्चलानुभूतिरूपं वीतरागचारित्रमित्युक्तलक्षणेन निश्चयरत्नत्रयेण परिणतजीवपदार्थ हे शिष्य ! स्व समय जानीहि । पूर्वोक्त निश्वयरत्नत्रयाभावास्तत्र मवास्थितो भवत्यय जीवस्तवा तं कीवं परसमय जामीहीति स्वसमयपरसमयलक्षणं ज्ञातव्य ।” समयसार गाथा २ टीका ।
जो निश्चल अनुभूति है वही वीतराग चारित्र है। ऐसे लक्षण वाले निश्चय रत्नत्रय से परिणत जीव को, हे शिष्य तू स्वसमय जान। जो जीव पूर्वोक्त निश्चय रत्नत्रय में स्थित नहीं है उसको परसमय जानो।
इन आर्ष वाक्यों से सिद्ध है कि जो निश्चल अनुभूति है वह वीतराग चारित्र का स्वरूप है। इसीलिये प्रवचनसार गाथा २२१ की टीका में
“शुद्धात्मानुभूतिविलक्षणासंयमः ।”
इन शब्दों द्वारा यह बतलाया है कि असंयमी के शुद्धात्मानुभूति नहीं होती है
इस पर भी असंयत सम्यग्दृष्टि के चतुर्थ गुणस्थान में निश्चल अनुभूति अथवा शुद्धात्मानुभूति कहना उपर्युक्त आर्ष वाक्यों का अपलाप करना है|
इस प्रकार असंयत सम्यग्दृष्टि के चतुर्थ गुणस्थान में किसी भी आर्ष वाक्य से स्वरूपाचरण सिद्ध नहीं होता, अपितु निषेध ही होता है।
 जिन जीवों की आयु एक कोटि पूर्व से अधिक होती है वे भोगभूमिया मनुष्य व तिर्यंच जीव होते हैं और जिन मनुष्यों या तियंचों की आयु एक कोटि पूर्व वर्ष है वे कर्म-भूमिया हैं (धवला पु. ६ पृ. १६९-१७०) ।
श्री नाभिराय की आयु १ कोटि पूर्व वर्ष की थी। कहा भी है-
पणजीसुत्तर पणसयचाउच्छेहो सुवण्णवन्मणिहो । इगियुब्वकोडिआऊ मषदेवी गाम तस्स बघु ॥४।४९५॥ [ति.प.]
अर्थ- श्री नाभिराय मनु पाँच सौ पच्चीस धनुष ऊँचे, सुवर्ण के सदृश वर्णवाले, और एक पूर्व कोटि आयु से युक्त थे। उनके मरुदेवी नाम की पत्नी थी ।
श्री नाभिराय, श्री भगवान आदिनाथ, श्री बाहुबली, श्री भरत की आयु एक कोटि पूर्व से अधिक नहीं थी, इसलिये ये कर्मभूमिया मनुष्य थे ।
श्री बाहुबली जी सर्वार्थसिद्धि से चय कर उत्पन्न हुए थे।
कहा भी है- “आनन्द पुरोहित का जीव जो पहले महाबाहु था और फिर सर्वार्थसिद्धि में अ‌मिन्द्र हुआ था, वह वहाँ से च्युत होकर भगवान वृषभदेव की द्वितीय पत्नी सुनन्दा के बाहुबली नाम का पुत्र हुआ था।” महापुराण पर्व १६ श्लोक ६ ।
जो जीव सर्वार्थ-सिद्धि से चय कर मनुष्य होता है वह नियम से सम्यग्दृष्टि होता है| धवल पु० ६ पृ० ५००।
अतः यह कहना कि श्री बाहुबली के सम्यक्त्व में कमी थी, ठीक नहीं है।
तप के कारण श्री बाहुबली को सर्वावधि तथा विपुलमति मनःपर्यय ज्ञान उत्पन्न होगया था। महापुराण पर्व ३६ श्लोक १४७ ।
अतः श्री बाहुबली के शल्य नहीं था क्योंकि ‘निःशल्यो व्रती’ ।।१८।।’ ऐसा मोक्षशास्त्र अध्याय सात में कहा है।
श्री बाहुबली के हृदय में विकल्प विद्यमान रहता था कि ‘भरतेश्वर मुझसे संक्लेश को प्राप्त हुआ है,’ इसलिये भरत जी के पूजा करने पर उनको केवलज्ञान उत्पन्न हो गया । महापुराण पर्व ३६ श्लोक १८६ ।
श्री भरतजी को तथा उनकी माता कैकेयी को दीक्षा ग्रहण से पूर्व भी सम्यक्त्व था किन्तु वह सम्यक्त्व परम या निर्मल नहीं था, क्योंकि जब तक श्रद्धा के अनुकूल आचरण नहीं होता, उस समय तक श्रद्धा निर्मल अथवा परम कैसे हो सकती है अर्थात् नहीं हो सकती ।
जो मनुष्य परिग्रह को सब पापों का मूल तथा संसार व रागद्वेष का कारण मानता है फिर भी परिग्रह का त्याग नहीं करता तो उसकी श्रद्धा कैसे निर्मल या परम हो सकती है ?
जिस मनुष्य को यह श्रद्धा हो जाती है कि अग्नि में हाथ देने से हाथ जल जायेगा, वह मनुष्य भूलकर भी अग्नि में हाथ नहीं देता है। यदि वह अग्नि में हाथ डालता है तो उसकी श्रद्धा दृढ़ नहीं है। जो मनुष्य ज्ञानी होते हुए भी अज्ञानी जैसी क्रिया करता है, तो वह कैसा ज्ञानी ? इसीलिये श्री अकलंकदेव ने राजवातिक में कहा है –
हतं ज्ञानं क्रियाहीनं।
अर्थात् – ज्ञान के अनुरूप यदि क्रिया नहीं है, तो ऐसा क्रियारहित ज्ञान निरर्थक है। श्री कुंदकुन्द आचार्य ने भी इसी बात को शीलपाहुड़ में निम्नप्रकार कहा है-
णाणं चरित्तहीणं णिरत्थयं सव्वं।
अर्थ- ज्ञान यदि चारित्र रहित है तो वह सब ज्ञान व्यर्थ है। दीक्षा ग्रहण करने से ज्ञान और श्रद्धान के अनुरूप चारित्र हो जाने से ज्ञान-श्रद्धान सार्थक हो गया, अतः सम्यक्त्व निर्मल तथा परम हो गया।

जो मिथ्यादृष्टि सम्यग्दर्शन के अभिमुख है, वह सातिशय मिथ्यादृष्टि है। उसके परिणामों में निरंतर प्रतिसमय अनन्तगुणी विशुद्धि बढ़ती जाती है। वह गुणश्रेणी निर्जरा करता है। साधारण मिध्यादृष्टि को निरतिशय मिथ्यादृष्टि कहते हैं।

पंचाध्यायी अनार्षग्रन्थ है।
जयधवल पु० १२ १० २८४-२८५ पर स्पष्ट लिखा है कि अपूर्वकरण एवं अनिवृत्तिकरण में प्रारम्भ किये गये वृद्धिरूप परिणाम सम्यक्त्व प्राप्त होने पर जब तक रहते हैं [अर्थात् जब तक एकान्तानुवृद्धिरूप परिणाम रहते हैं] तब तक दर्शनमोहनीय के अतिरिक्त अन्य कर्मों की असंख्यातगुणश्रेणि निर्जरा होती है। उसके पश्चात् विधातरूप [ मन्द परिणाम हो जाते हैं, तब असंख्यातगुण- श्रेणिनिर्जरा, स्थितिकाण्डकघात, अनुभागकाण्डकघात आदि सब कार्य बन्द हो जाते हैं।
यदि चतुर्थगुणस्थान में प्रतिसमय नित्य असंख्यातगुणश्रेणिनिर्जरा होने लगे तो ३३ सागर की आयु वाले देव व नारकी सम्यग्दृष्टि के तो सम्पूर्ण कर्म निर्जरा को प्राप्त हो जाने चाहिए थे।
मूलाचार में लिखा है कि ”असंयत सम्यग्दृष्टि का तप गुणकारी नहीं होता।” यदि उस तप से अविपाक निर्जरा मान ली जाय तो वह गुणकारी हो जायेगा।
टीकाकार भी वसुनन्दि सिद्धान्त वक्रवर्ती लिखते हैं कि “जितनी कर्म निर्जरा होती है, उससे अधिकतर व दृढ़तर कर्म असंयम के कारण बंध जाते हैं।”
प्रवचनसार में कहा है कि सम्यग्दर्शन व ज्ञान संयम के बिना व्यर्थ है; यदि स्वाँखा [ सुनेत्री] प्रकाश के होते हुए गड्ढे में गिरता है तो उसकी आँखें तथा प्रकाश व्यर्थ हैं।
धवल, जयधवल, महाधवल आदि ग्रन्थों में से किसी में भी ऐसा नहीं लिखा है कि असंयमी के संख्यात- गुणी निर्जरा होती है। यदि वह अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना, दर्शनमोह की क्षपणा या द्वितीयोपशम सम्यक्त्त्व की प्राप्ति करता है तो तीन करण होने से (उस समय) असंख्यातगुणी गुणश्रेणिनिर्जरा होती है, अन्य समय नहीं।
पीड़ा देने वाली वस्तु को शल्य कहते हैं। काँटे आदि के समान जो चुभती रहे, शरीर और मन संबंधी बाधा का कारण हो उसे शल्य कहते हैं। कहा भी है-

सुणाति प्राणिनं यच्च तत्त्वज्ञैः शल्यमीरितम् ।

शरीरामुप्रविष्ट हि काण्डादिकमिवाधिकम् ।। ४/४ ॥ सिद्धान्तसार

अर्थ- जो प्राणियो को पीड़ा देता है वह शल्य है, ऐसी तत्त्वज्ञों ने शल्य शब्द की व्याख्या की है, जैसे शरीर में घुसा हुआ वापादिक शल्य प्राणी को अधिक व्यथित करता है, वैसे ही माया, मिथ्यात्व, निदान ये तीन शल्य प्राणी को दुःख देते हैं, इसलिये ये शल्य हैं।
व्रती के यद्यपि माया कषाय का उदय होता है तथापि वह इतनी मायाचारी या कपट नहीं करता जो निरंतर उसके चुभती रहे।
यदि व्रती से कोई कपट हो भी जाता है तो वह तुरन्त प्रायश्चित द्वारा उस दोष को घो डालता है और व्रत को स्वच्छ कर लेता है। किन्तु अव्रती प्रायश्चित द्वारा उस माया भाव को दूर नहीं करता। इसलिये उसके माया शल्य बना रहता है।
शल्य का कथन व्रती और अव्रती की अपेक्षा से है, मिथ्यात्व और सम्यक्त्व की अपेक्षा से शल्य का वर्णन नहीं है। क्योंकि शल्यरहित व्रती होता है, ऐसा आर्ष वाक्य है। तत्वार्थ सूत्र ७/१८ ।
किन्तु शल्य रहित सम्यग्दृष्टि होता है; ऐसा आर्ष वाक्य नहीं है।

चौथे गुणस्थान में अप्रत्याख्यानावरण कषाय चतुष्क का उदय रहता है जिसके कारण वह विषय-भोग का त्याग नहीं कर सकता, किन्तु विषय-भोग को हेय तथा त्याज्य मानता है। इसलिये वह अप्रत्याख्यानावरण के उदय की बरजोरी से आत्म-निन्दा पूर्वक विषय-भोगों में इन्द्रिय-सुख का अनुभव करता है, जैसे कोतवाल द्वारा पकड़ा हुआ चोर, कोतवाल की बरजोरी से, अपना मुँह भी काला करता है और अन्य क्रिया भी करता है। कहा भी है-

“स्वाभाविकानन्तज्ञानाद्यनन्तगुणधारभूतं निजपरमात्मद्रव्यनुपादेयम्, इन्द्रियसुखादि परद्रव्यम् हि हेयमित्यर्हत्सर्वज्ञ- प्रणीतनिश्चयव्यवहारनयसाध्यसाधक- भावेन मन्यते परं किन्तु भूमिरेखादिसदृश- क्रोधादिद्वितीयकषायोदयेन मारणनिमित्तं तलवरगृहीत- तस्करवदात्मनिंदासहितः सन्निद्रीयसुखमनुभवतीत्य- विरतसम्यग्दृष्टेर्लक्षणम् ।” वृहद द्रव्यसंग्रह गाथा १३ टीका ।

अर्थ – “स्वाभाविक अनन्तज्ञान अनन्तगुणों का आधारभूत निजपरमात्म द्रव्य उपादेय है तथा इन्द्रिय सुख आदि परद्रव्य हेय है तथा सर्वज्ञ कथित निश्चय-व्यवहार नय में परस्पर साध्य साधक भाव है” ऐसा मानता है, किन्तु भूमि-रेखा समान क्रोधादि दूसरी अप्रत्याख्यानावरण कषायोदय से, मारने के लिये कोतवाल से पकड़े हुए चोर की भाँति, आत्मनिंदादि सहित इन्द्रियसुख का अनुभव करता है, यह अविरत सम्यग्दृष्टि चौथे गुणस्थानवर्ती का लक्षण है।

श्री १०८ अमृतचन्द्र आचार्य ने कलश ११० में कहा है कि कर्म का उदय अवशपने से होता है और उस मोहनीय कर्मोदय से जो राग-द्वेष भाव होते हैं उनसे बन्ध होता है। वह वाक्य इस प्रकार है-

“किंत्वत्रपि समुल्लसत्यवशतो यत्कर्म बंधाय ।”

अर्थ- किन्तु यहाँ इतना विशेष जानना चाहिये कि सम्यग्दृष्टि के अवशपने से जो कर्म उदय में आता है वह तो बन्ध का कारण है। (वह कर्मबन्ध अनन्तानन्त संसार का कारण नहीं होता)।

का वि अडब्या दीसहि पुग्गल दव्वस्स एरिसी सत्ती।

केवलणाणसहावो विणासिदो जाइ जीवस्स ॥२११॥ स्वा० का

अर्थ-पुद्गल द्रव्य की कोई ऐसी अपूर्व शक्ति है जिससे जीव का जो केवलज्ञान स्वभाव है, वह भी विनष्ट हो जाता है।

जैसे एक मनुष्य को रोग हो गया और वह रोगजनित पीड़ा को सहन करने में असमर्थ है। अतः वह रोग को दूर करने के लिये इच्छापूर्वक औषधि का सेवन करता है किन्तु चाहता है कि इस औषधि से कब पिड छूटे अर्थात् हेय बुद्धि से रोग को दूर करने की इच्छा से औषधि का सेवन करता है।

उसी प्रकार अविरत सम्यग्दृष्टि जीव के कर्मोदयजनित रोग है जिसकी पीड़ा को वह सहन करने में असमर्थ है, अतः वह उस रोगजनित पीड़ा को दूर करने की इच्छा से बुद्धिपूर्वक विषय-भोग रूप औषधि का सेवन करता है किन्तु उसमें उसके हेय बुद्धि है अर्थात् निरन्तर इस प्रयत्न में रहता है कि किस प्रकार इन भोगों से छुटकारा पाऊँ (त्याग करू)|

जिसके विषय-त्याग रूपी संयम धारण करने की उत्सुकता नहीं है तथा जो संयमियों का आदर नहीं करता, वह मिथ्यादृष्टि है।

समाधान – निर्विकल्प समाधि में स्थित मुनियों के लिये तो पाप के समान पुण्य को हेय मानना उचित है, किन्तु श्रेणी आारोहण से पूर्व अवस्था वालों के लिए पुण्य हेय नहीं है। कहा भी है-

“तहिं ये केचन पुण्यपापद्वयं समानं कृत्वा तिष्ठन्ति तेषां किमिति दूषणं दीयते भवभिरिति ? भगवानाह-यदि शुद्धात्मानुभूतिलक्षणं त्रिगुप्ति- गुप्तवीतरागनिविकल्पपरमसमाधि लब्ध्वा तिष्ठन्ति तदा संमतमेव । यदि पुनस्तयाविधामवस्थामलममाना अपि संतो गृहस्थावस्थायां दान-पूजादिकं त्यजन्ति तपोधनावस्थायां षडावश्यकादिकं च त्यक्त्योभय-भ्रष्टाः सन्तः तिष्ठन्ति तदा दूषणमेवेति तात्पर्यम् ।”

अर्थ- यहाँ पर शंका की गई कि यदि पुण्य पाप समान हैं, तो जो पुण्य पाप को समान मान कर बैठे हैं, उनको दूषण क्यों दिया जाता है ?आचार्य कहते हैं- शुद्धात्म-अनुभूति स्वरूप तीन गुप्ति से गुप्त वीतराग निविकल्प परम समाधि को पाकर ध्यान में मग्न हुए यदि पुण्य पाप को समान जानते हैं, तो उनका जानना योग्य है। परन्तु जो परम समाधि को न पाकर भी गृहस्थ अवस्था में दान-पूजा आदि को छोड़ देते हैं और मुनि पद में छह आवश्यक कर्मों को छोड़ देते हैं वे उभय अष्ट हैं। उनके पुण्य पाप को समान जान कर पुण्य को हेय मानना दोष ही है।

वर वयतवेहि सग्गो मा दुक्खं होउ णिरइ इयरेहिं ।छायातववट्ठियाणं पडिवालंताण गुरुभेयं ॥२५॥ श्री कुन्दकुंद कृत मोक्षपाहुड

अर्थ- व्रत और तप करि स्वर्ग होय है सो श्रेष्ठ है, बहुरि इतर जो अव्रत और अतप तिनिकरि प्राणी के नरकगति विषै दुःख होय है सो मति होहु श्रेष्ठ नाहीं (हेय है)। छाया और आतप के विषै तिष्ठने वाले के जे प्रतिपालक का कारण हैं तिनके बड़ा भेद है ( बहुत अंतर है)।यहाँ कहने का यह आशय है जो जेतै निर्वाण न होय तेतै व्रत तप आदिक (शुभ कार्यों में प्रवर्तना श्रेष्ठ है यातै सांसारिक सुख की प्राप्ति हो है और निर्वाण के साधन विषेें भी ये सहकारी हैं। विषय कषायादिक ( अशुभ कार्यों) की प्रवृत्ति का फल तो केवल नरकादिक के दुःख हैं सो तिन दुःखनि के कारणनिक्कू सेवना यह तो बड़ी भूल है, ऐसा जानना । अष्टपाहुड़ पृ० २९३ ।

श्री पूज्यपाद आचार्य ने इष्टोपदेश में भी कहा है-वरं वतेे पदं देेवं नाव्रतैर्वत नारकं।छायातपस्थयोर्भेदः, प्रतिपालयतोर्महान् ॥ ३ ॥

अर्थ- व्रतों के द्वारा (शुभ भावों के द्वारा) देव पद (पुण्य) प्राप्त करना अच्छा है (उपादेय है) किन्तु आव्रतों (अशुभ) के द्वारा नरक पद (पाप) प्राप्त करना अच्छा नहीं (हेय है)। जैसे छाया और धूप में बैठने वाले में महान् अन्तर पाया जाता है, वैसे ही व्रत (पुण्य) और अव्रत (पाप) के आचरण व पालन करने वालों में अन्तर पाया जाता है ।

श्री अकलंक देव ने अष्टशती में तथा भी विद्यानन्द आचार्य ने अष्टसहस्री में कारिका ८८ की टीका में परम पुण्य से मोक्ष लिखा है-

“मोक्षस्यापि परमपुण्यातिशयचारित्रविशेषात्मकपौरुषाभ्यामेव संभवात् ।”

अर्थ- मोक्ष भी होय है सो परम पुण्य का उदय अर चारित्र का विशेष आचरण रूप पौरुषतै होय है।पंचास्तिकाय गाथा ८५ की टीका में भी इसी बात को कहा गया है-

“यथा रागादिदोषरहितः शुद्धात्मानुभूतिसहितो निश्चयधर्मो यद्यपि सिद्धगतेरूपादानकारणं भव्यानां भवति तथा निदानरहितपरिणामोपार्जिततीर्थंकर- प्रकृत्युत्तमसंहननादिविशिष्टपुण्यरूप धर्मोपि सहकारिकारणं भवति ।”

अर्थ- जिस प्रकार रागादि दोष रचित शुद्धात्मानुभूति सहित निश्चयधर्म भव्य जीवों के यद्यपि सिद्ध गति का कारण है, उसी प्रकार निदान रहित परिणामों से बाँधा हुआ तीर्थंकर नाम कर्म-प्रकृति व उत्तम संहनन आदि विशेष पुण्य रूप कर्म अथवा शुभ धर्म भी सिद्धगति का सहकारी कारण है।

वर्तमान पंचमकाल भरत क्षेत्र में वीतरागनिर्विकल्प समाधि (श्रेणी) तो असंभव है। प्रतिदिन पाप रूप प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। जिसका नाम सुनने मात्र से भोजन में साधारण गृहस्थ को अंतराय हो जाती थी, आज का जैन नवयुवक होटल तथा पार्टी में वे पदार्थ ही ग्रहण करता है। ऐसी दशा में पुण्य पाप को समान बतला कर पुण्य को हेय कहना कहाँ तक उचित है।

जिस प्रकार वर्तमान काल में अतदाकार स्थापना का उपदेश नहीं दिया जाता है, क्योंकि अतदाकार स्थापना के द्वारा श्रावकों की प्रवृत्ति, बिगड़ने की संभावना है; उसी प्रकार पुण्य और पाप को समान कहकर पुण्य को हेय बतलाना उचित नहीं है।

धर्म का स्वरूप पूछे जाने पर श्री मुनि महाराज ने चतुर्थ काल में भी भील को मांस का त्याग धर्म है, ऐसा उपदेश दिया था। निर्विकल्प समाधि धर्म है, ऐसा उपदेश भील को नहीं दिया गया था ।”हिसादिष्विहानुत्रापायावद्यदर्शनम् ।। दुःखमेव वा ।।”

इन सूत्रों द्वारा पाप को ही हेय बताया गया है। पुण्य को हेय नहीं बतलाया, क्योंकि यहाँ श्रावकों के लिए उपदेश था।

हाँ, पर्युषण शब्द का प्रयोग मुख्यता से श्वेताम्बर परंपरा में एवं दसलक्षण शब्द का प्रयोग दिगंबर परंपरा में किया जाता है, इसलिए हमारे जिनवाणी में जो पूजन अथवा कथा आदि आयी हुई हैं वहाँ दसलक्षण शब्द का ही प्रयोग किया गया है, जैसे – दसलक्षण पूजा, दसलक्षण कथा| पर हरिवंश पुराण में आचार्य भगवान ने पर्युषण शब्द का उपयोग किया हुआ है, फिर भी दिगंबर परंपरा में दसलक्षण शब्द का ही प्रयोग विशेष रूप से किया जाता है|

समाधन :- जैन धर्म में व्रत उपवास कर्म क्षय के लिये किये जाते है और यदि वहाँ तीर्थंकरों के कल्याणकों के दिवस पर किये जायें तो काल शुद्धि होने से विशेष फलदायी होते हैं । मोक्ष सप्तमी जो की प्रभु पार्श्वनाथ स्वामी का मोक्ष कल्याणक के दिन किया गया उपवास सभघ भव्य जीवों के लिये कर्म निर्जरा में कारण होता है । इसमें किसी भी प्रकार का स्त्री अथवा पुरुष का भेद नहीं है। जो लोक में इस दिन लड़कियों को विशेष रुप से उपवास करने के लिये प्रेरणा दी जाती है उसके पीछे ऐसी रूढी हैं कि ऐसा करने से लड़कियों को अच्छा पति मिलता है जब की जिनागम में ऐसा कोई उल्लेख नहीं आया है अतः हमें ऐसी रूढीओं को छोड़कर कर्म क्षय के लिये उपवास करना चाहिये ।

नहीं | आचार्य भगवंतों की ऐसी आज्ञा है कि ग्रंथ सदैव मंगलाचरण पूर्वक ही प्रारम्भ करना चाहिए और मात्र प्रारम्भ ही नहीं जब-जब भी स्वाध्याय करें तब-तब उस ग्रंथ के मंगलाचरण पूर्वक ही प्रारम्भ करना चाहिए | वैसे तो तीन बार मंगलाचरण करने का विधान जिनागम में आया हुआ है – आद्य मंगलम , मध्य मंगलम और अंत मंगलम | फिर भी कम से कम आद्य मंगलाचरण तो अवश्य ही करना चाहिए | और बात रही ग्रंथ को बीच में छोड़ने की तो वैसे तो ग्रंथ को पूरा ही पढ़ना चाहिये क्योंकि आचार्य कुन्दकुन्द देव ने ने कहा है कि ” भले ही हमारे ज्ञान की अल्पज्ञता के कारण हमें आज जिनवाणी की बात न भी समझ में आती हो फिर भी यदि हम आज जिनवाणी को भावपूर्वक सुनते अथवा पढ़ते हैं तो वह कालांतर में हमारे केवलज्ञान में कारण बनती है | ” फिर भी यदि आपका स्वाध्याय का नियम नहीं हैं और आप कदाचित ग्रंथ आप पूरा नहीं कर पा रहे हैं तो भी कोई बात नहीं है लेकिन मंगलाचरण तो अवश्य करना चाहिये |
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