Posted On: 12-October-2022
जो योगी मन को समाहित कर लेता है वह चारित्र को दृढ़ता से पालता है। जिसका मन चंचल होता है वह चारित्र की शुद्धि को प्राप्त नहीं हो पाता। वचन और काय से समृद्ध योगी जब तक मन की स्वच्छंदता पर अंकुश नहीं लगाता तब तक वह साधना के नाम पर मात्र चलनी में पानी भरने का अप्रयोजनीय श्रम करता है। स्वच्छंद मन संस्कारहीन दुष्ट अश्व की तरह होता है, जो चलता तो बहुत है किन्तु पहुँचता कभी नहीं मंजिल की उपलब्धि मन के मालिक स्वयं बनने से हो सकती है। अभी तो मन हमारा मालिक बन बैठा है, जो हमारी सुखमय जिंदगी को तबाह कर रहा है। हमें चाहिये कि हम मन के मालिक बनें, मन को अपना मालिक न बनायें। मन को मालिक बनाने का अर्थ है अपने आत्मगुण रूपी खजाने की चाबियाँ मन को सौंप देना। मन उद्दण्ड है, मन अधम है, मन पापी है, मन धोखेबाज है। मन को वश में रखना ही मालिक बनना है।
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