हाँ, पर्युषण शब्द का प्रयोग मुख्यता से श्वेताम्बर परंपरा में एवं दसलक्षण शब्द का प्रयोग दिगंबर परंपरा में किया जाता है, इसलिए हमारे जिनवाणी में जो पूजन अथवा कथा आदि आयी हुई हैं वहाँ दसलक्षण शब्द का ही प्रयोग किया गया है, जैसे - दसलक्षण पूजा, दसलक्षण कथा| पर हरिवंश पुराण में आचार्य भगवान ने पर्युषण शब्द का उपयोग किया हुआ है, फिर भी दिगंबर परंपरा में दसलक्षण शब्द का ही प्रयोग विशेष रूप से किया जाता है|
समाधन :- जैन धर्म में व्रत उपवास कर्म क्षय के लिये किये जाते है और यदि वहाँ तीर्थंकरों के कल्याणकों के दिवस पर किये जायें तो काल शुद्धि होने से विशेष फलदायी होते हैं । मोक्ष सप्तमी जो की प्रभु पार्श्वनाथ स्वामी का मोक्ष कल्याणक के दिन किया गया उपवास सभघ भव्य जीवों के लिये कर्म निर्जरा में कारण होता है । इसमें किसी भी प्रकार का स्त्री अथवा पुरुष का भेद नहीं है। जो लोक में इस दिन लड़कियों को विशेष रुप से उपवास करने के लिये प्रेरणा दी जाती है उसके पीछे ऐसी रूढी हैं कि ऐसा करने से लड़कियों को अच्छा पति मिलता है जब की जिनागम में ऐसा कोई उल्लेख नहीं आया है अतः हमें ऐसी रूढीओं को छोड़कर कर्म क्षय के लिये उपवास करना चाहिये ।
नहीं | आचार्य भगवंतों की ऐसी आज्ञा है कि ग्रंथ सदैव मंगलाचरण पूर्वक ही प्रारम्भ करना चाहिए और मात्र प्रारम्भ ही नहीं जब-जब भी स्वाध्याय करें तब-तब उस ग्रंथ के मंगलाचरण पूर्वक ही प्रारम्भ करना चाहिए | वैसे तो तीन बार मंगलाचरण करने का विधान जिनागम में आया हुआ है - आद्य मंगलम , मध्य मंगलम और अंत मंगलम | फिर भी कम से कम आद्य मंगलाचरण तो अवश्य ही करना चाहिए | और बात रही ग्रंथ को बीच में छोड़ने की तो वैसे तो ग्रंथ को पूरा ही पढ़ना चाहिये क्योंकि आचार्य कुन्दकुन्द देव ने ने कहा है कि " भले ही हमारे ज्ञान की अल्पज्ञता के कारण हमें आज जिनवाणी की बात न भी समझ में आती हो फिर भी यदि हम आज जिनवाणी को भावपूर्वक सुनते अथवा पढ़ते हैं तो वह कालांतर में हमारे केवलज्ञान में कारण बनती है | " फिर भी यदि आपका स्वाध्याय का नियम नहीं हैं और आप कदाचित ग्रंथ आप पूरा नहीं कर पा रहे हैं तो भी कोई बात नहीं है लेकिन मंगलाचरण तो अवश्य करना चाहिये |