सिद्ध परमेष्ठी शरीर से रहित होते हैं इस कारण वे हमें अपने नेत्रों से दिखायी नहीं देते, क्योंकि हम अपने नेत्रों से एकमात्र पुद्गल द्रव्य को ही देख सकते हैं किन्तु सिद्ध परमेष्ठी की छवि जैसी जिनेन्द्र देव ने बतायी है उसका वर्णन " द्रव्य संग्रह जी " ग्रंथ में आया हुआ है- णिक्कम्मा अट्ठगुणा, किंचूणा चरमदेहदो सिद्धा| लोयग्गठिदा णिच्चा, उप्पादवयेहिं संजुत्ता ॥14॥ अन्वयार्थ : [णिक्कम्मा ] आठकर्मों से रहित [अट्ठगुणा ] आठगुणों से सहित [चरमदेहदो किं चूणा ] अन्तिम शरीर से कुछ कम प्रमाण वाले [लोयग्गठिदा ] ऊर्ध्वगमन स्वभाव से लोक के अग्रभाग में स्थित [णिच्चा ] विनाश रहित और [उप्पादवएहिं संजुत्ता ] उत्पाद व व्यय से संयुक्त हैं वे [सिद्धा] सिद्ध भगवान् हैं । अर्थात सिद्ध परमेष्ठी जिस अंतिम शरीर को छोड़कर सिद्ध हुये हैं उनकी आत्मा उसी शरीर के आकार से कुछ कम पुरुषाकार रहा करती है, क्योंकि उनका अंतिम शरीर पुरुष का ही होता है| कुछ कम रहने का कारण यह है कि हमारे शरीर में नासिका, कान आदि के छिद्र होते हैं जिसमें आत्मा के प्रदेश नहीं होते किंतु जब जीव को निर्वाण प्राप्त होता है तो आत्मा के प्रदेशों में किसी प्रकार का रिक्त स्थान शेष नहीं रहता, इसलिए किंचित न्यून आकार कहा गया है| उनकी सिद्ध अवस्था का कभी भी विनाश नहीं होता इसलिए वे विनाश रहित हैं| प्रत्येक द्रव में प्रति समय नवीन-नवीन पर्याय उत्पन्न होती रहती हैं एवं पुरानी पर्याय विलय होती रहती है, इसलिये उन्हें उत्पाद-व्यय से संयुक्त कहा है| ( हमें बोध कराने के लिये उन्हें श्वेत पुंज जैसा दिखाया जाता है लेकिन सिद्ध परमेष्ठी अमूर्तिक होते हैं| )
नहीं, अप्रतिष्ठित प्रतिमा घर में रखना जिनागम में अशुभ माना गया है और इन चीनी मिट्टी अथवा प्लास्टिक की मूर्तियों की पंचकल्याणक प्रतिष्ठिा होने का कोई विधान जिनागम में प्राप्त नहीं होता , इसलिए यदि मूर्ति रखना ही हो, एक सुन्दर भव्य गृह चैत्यालय बनवाकर उसमें प्रतिष्ठित मूर्ति को ही विराजमान करना चाहिए| लेकिन ये चीनी मिट्टी अथवा प्लास्टिक की मूर्तियाँ घरों में कभी नहीं रखना चाहिए |